अरस्तु के कानून सम्बन्धी विचार
कानून सम्बन्धी विचार (Views on Law)
अरस्तू के 'कानून सम्बन्धी विचारों का राजनीतिक चिन्तन में एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। प्लेटो ने 'रिपब्लिक' में तो कानून की उपेक्षा की है लेकिन उन्होंने अपनी पुस्तक 'लॉज' में इस भूल को स्वीकारते हुए 'कानून' की आवश्यकता पर जोर दिया है। प्लेटो के शिष्य होने के नाते अरस्तू ने भी 'कानून के शासन' का द द समर्थन किया है। प्लेटो ने कानून से ऊपर दार्शनिक शासक को माना है, लेकिन अरस्तू का मानना है कि बुद्धिमानी शासक भी कानूनों से सर्वोत्तम नहीं हो सकता । अरस्तू ने कानून को एक आवश्यक बुराई के रूप में नहीं, बल्कि एक अच्छाई के रूप में स्वीकार किया है। उसकी धारणा है कि श्रेष्ठ राजनीतिक जीवन के लिए कानून अनिवार्य है। कानून संविधान के अनुकूल होना चाहिए तभी कानून न्यायपूर्ण होगा। अरस्तू के अनुसार- "विधि का शास्त्र किसी एक व्यक्ति के शासन से अच्छा है, भले ही वह उचित लगता हो कि व्यक्तियों का शासन हो, तब भी व्यक्तियों को विधि का संरक्षक अथवा सेवक ही बनाना चाहिए।" इससे स्पष्ट है कि अरस्तू कानून के शासन का द द समर्थक है और जितनी निष्ठा कानून के प्रति अरस्तू की है, अन्य की नहीं है।
कानून से अभिप्राय (Meaning of Law)
अरस्तू कानून को ही विवेक का दूसरा रूप मानता है। उसका मानना है कि कानून वासनाओं से मुक्त विवेक है। उसके अनुसार में कानून उन सभी आध्यात्मिक प्रतिबन्धों का योग है जिनका मनुष्य मर्यादापूर्वक आचरण करता है। मनुष्य में विवेक के साथ-साथ भावना, लालसा, प्रलोभन, आवेग आदि का भी समावेश होता है। इसलिए वह गलत कार्यों की ओर प्रेरित होता है। इसलिए कानून उन सामान्य सिद्धान्तों का रूप बनकर मनुष्य को व्यावहारिक जीवन में अच्छे, नैतिक, सामाजिक और न्यायोचित कार्यों की ओर मोड़ता है। अरस्तू का मानना है कि कानून नैतिकता का भी सहधर्मी है। विवेकपूर्ण आचरण में ही नैतिकता भी निहित है। इस प्रकार अरस्तू कानून को आवेगों और आवेशों से रहित विशुद्ध विवेक के रूप में स्वीकारता है। उसने कहा है- "कानून आवेगहीन विवेक होता है।" अरस्तू के अनुसार कानून विशुद्ध विवेक के साथ-साथ उत्कृष्ट नैतिकता का भी प्रतीक है। अतः कानून मानव जीवन के सभी पहलुओं का नियामक है।
कानून की आवश्यकता (Need of Law)
कानून न केवल व्यक्ति के लिए बल्कि समाज के लिए भी आवश्यक होता है। अरस्तू का मानना है कि मनुष्यों को सदाचार की मर्यादाओं में रखने के लिए संयम और अनुशासन में रखने के लिए, स्वार्थ तथा वासनाओं से प्रेरित नहोने के लिए, अपराधों व अन्याय को रोकने के लिए, राज्य में शान्ति व व्यवस्था बनाए रखने के लिए कानून अति आवश्यक है। कानून व्यक्ति की पाश्विक व त्तियों का दमन करके उन्हें अनुशासन में रखता है। कानून स्वार्थी और भावना प्रेरित कार्यों पर रोक लगाता है। इसलिए कानून व्यक्ति तथा समाज दोनों के लिए जरूरी है।
कानून के स्रोत (Sources of Law)
अरस्तू ने कानून के दो स्रोत वैयक्तिक तथा अवैयक्तिक माने हैं। अरस्तू के मत में विधायक या विधि निर्माता कानून का वैयक्तिक स्रोत होता है। यह लिखित कानूनों के साथ-साथ अतिरिक्त कानूनों और प्रथाओं का भी निर्माण कर सकता है। वह शिक्षा के सिद्धान्तों का निरूपण कर नागरिकों को स्वभावतः कानून का पालन करने योग्य बनाता है। विधि निर्माता को ही कानून निर्माण का एकमात्र अधिकार प्राप्त है। अरस्तू ने प्रथाओं और परम्पराओं को कानून का अवैयक्तिक स्रोत माना है।
कानून का स्वरूप (Nature of Law)
अरस्तू ने कानून के प्राकृतिक स्वरूपको स्वीकार किया है। उसके मत में कानून शाश्वत और अपरिवर्त्य नैतिक नियम होते हैं। विधि-निर्माता, जो कानूनों को बनाता है मूलतः कानूनों की सष्टि नहीं करता बल्कि मात्र उनकी खोज करता है। कानून प्राकृतिक रूप से विद्यमान है। यह अव्यावहारिक तत्त्व है। विधिकार अपनी दिव्य द ष्टि और अलौकिक प्रतिभा द्वारा उन तत्त्वों की खोज करता है, वह किसी नए नियम का निर्माण नहीं करता। उसने स्वीकार किया है कि वास्तविक कानून तथा प्राकृतिक कानून अन्तर है। ये एक-दूसरे के विरोधी न होकर एक-दूसरे के पूरक हैं।
कानूनों का वर्गीकरण (Classification of Laws)
अरस्तू ने अपनी पुस्तक 'वक्त त्वकला शास्त्र' (Rhetoric) में कानन को दो भागों विशिष्ट कानून तथा सार्वजनिक कानून में विभाजित किया है। अरस्तू ने विशिष्ट कानून उन कानूनों को कहा है जो किसी विशिष्ट राज्य द्वारा बनाए जाते हैं और उस राज्य के व्यक्तियों पर लागू किए जाते हैं। ये लिखित भी हो सकते हैं और अलिखित भी। अरस्तू ने सार्वभौमिक कानून प्राकृतिक नियमों को माना है। अरस्तू का मानना है कि ये कानून मनुष्य के हृदय में अलौकिक ज्योति के रूप में सदा उपस्थित रहते हैं। इन पर देशकाल का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। ये सभी देशों के लिए समरूप होते हैं ये कानून न्याय और औचित्य का मूल सिद्धान्त होते हैं। ये शाश्वत और सार्वभौम होते हैं। विवेक
पर आधारित होने के कारण ये कानून पालना योग्य होते हैं ।
कानून का स्थान (Place of Law)
अरस्तू का कहना है कि कानून सदैव संविधान के अनकूल होते हैं। बुरे संविधान में बुरे कानून होते हैं। जिस देश में कोई कानून नहीं, वहाँ पर संविधान का अभाव होगा। अरस्तू के विचार में संविधान और सरकार एक हैं। वह सरकार को कानून की प्रभुता में रखना चाहता है। सरकार चाहे कैसी भी हो उसे स्वार्थ रहित रखने के लिए कानून आवश्यक है। कानून सरकार के अनुचित कार्यों पर रोक लगाते हैं। कानून का शासन सदैव अच्छा होता है। कानून सब के लिए समान होते हैं। किसी भी नागरिक को कानून का उल्लंघन करने की अनुमति नहीं दी जा सकती। अतः कानून का स्थान बहुत महत्त्वपूर्ण है। ये सामाजिक मापदण्डों के निर्धारक हैं।
कानून की सर्वोच्चता (Supremacy of Law)
अरस्तू ने निम्न तर्कों के आधार पर कानून की सर्वोच्चता का समर्थन किया है :
1. कानून के शासन का अर्थ है- विवेक का शासन यह स्वयं ईश्वर के शासन के समान होता है। किसी व्यक्ति का शासन इसकी बराबरी नहीं कर सकता क्योंकि वह क्रोध के कारण पथभ्रष्ट हो सकता है।
2. कानून ही राज्य में एकता व सुव्यवस्था स्थापित कर सकता है। यह व्यक्ति के आचरण को सीमाबद्ध करके अन्याय व अपराधों को रोकता है।
3. यह सदैव सार्वजनिक कल्याण का उद्देश्य रखता है जबकि निरंकुश शासक स्वार्थ पूर्ति के लिए शासन करता है।
4. यह पक्षपातविहीन और निर्वैयक्तिक होता है। दूसरी तरफ राज्य के अच्छे से अच्छे शासक भी अपनी इच्छाओं व भावनाओं के दास होते हैं।
5. कानून की प्रभुता में कार्य करने से सरकारी पदाधिकारियों के स्वेच्छाचार से छुटकारा मिल जाता है।
6. यह जन इच्छा पर आधारित है, भय या दण्ड पर नहीं
अतः हम कह सकते हैं कि कानून का शासन अरस्तू की एक महत्त्वपूर्ण देन है। अरस्तू ने कानून की सर्वोच्चता को श्रेष्ठ शासन का अभिन्न अंग स्वीकार किया है। कानून का शासन व्यक्ति में नैतिक और सभ्य व्यक्ति के गुण पैदा करता है। कानून के महत्त्व पर अरस्तू ने लिखा है- "मनुष्य परिष्कृत होने पर एक सर्वश्रेष्ठ है, लेकिन कानून और न्याय से अलग होने पर वह निकृष्टतम प्राणी है।" अरस्तू की कानून की सर्वोच्चता की धारणा मध्ययुग में बहुत लोकप्रिय रही है। इसी सिद्धान्त ने जर्मनी की राजनीति को सभ्य और उदार बनाने में योगदान दिया हैं यह सिद्धान्त आगे चलकर अमेरिका, इंगलैण्ड आदि देशों के संविधान तन्त्र का आधार बना। आधुनिक युग में अधिकांश देशों ने इसे मूलमन्त्र के रूप में स्वीकार कर लिया है। निष्कर्ष तौर पर कहा जा सकता है कि कानून की सर्वोच्चता का विचार अरस्तू की राजनीतिक चिन्तन के इतिहास में एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण देन है।