प्लेटो का जीवन परिचय एंव उसकी रचनाएँ
परिचय (Introduction)
प्राचीन यूनान के महान् दार्शनिक प्लेटो को केवल यूनान का ही नहीं बल्कि समूचे विश्व का प्रथम राजनीतिक दार्शनिक होने का श्रेय प्राप्त है। उनसे पहले किसी ने भी राज्य सरकार तथा व्यक्ति के सम्बन्ध पर तर्कसंगत सिद्धान्त प्रस्तुत नहीं किया। प्लेटो का दर्शन सर्वव्यापी था । राजनीतिशास्त्र के अतिरिक्त तर्कशास्त्र, नीतिशास्त्र, शिक्षाशास्त्र आदि विषयों पर भी उसकी देन मौलिक है। मूल रूप में प्लेटो एक आदर्शवादी था। वह पदार्थ ( Matter) की अपेक्षा विचार (Idea) को ही वास्तविक मानकर प्राथमिकता देते थे। प्लेटो की यह मान्यता हीगेल, ग्रीन, बोसांके जैसे आधुनिक आदर्शवादियों का प्रेरणा-स्रोत बनी। आधुनिक युग की बहुत सी अन्य विचारधाराएँ फासीवाद, अधिनायकवाद, नाजीवाद भी प्लेटो के दर्शन की ऋणी हैं।
जीवन परिचय (Life History)
महान् यूनानी दार्शनिक प्लेटो का जन्म 427 ई. पूर्व में एथेन्स के एक कुलीन परिवार में हुआ था। उनके पिता अरिस्टोन एथेन्स के अन्तिम राजा कोर्डस के वंशज तथा माता पेरिकतिओन यूनान के सोलन घराने से थी। प्लेटो का वास्तविक नाम एरिस्तोकलीज था, उसके अच्छे स्वास्थ्य के कारण उसके व्यायाम शिक्षक ने इसका नाम प्लाटोन रख दिया। प्लेटो शब्द का यूनानी उच्चारण 'प्लातोन' है तथा प्लातोन शब्द का अर्थ चौड़ा चपटा होता है। धीरे-धीरे प्लातोन के स्थान पर प्लेटो कहा जाने लगा। वह आरम्भ से ही राजनीतिज्ञ बनना चाहता था लेकिन उसका यह स्वप्न पूरा न हो सका और वह एक महान् दार्शनिक बन गया
प्लेटो के जन्म के समय एथेन्स यूनान का महानतम राज्य था। लेकिन लगातार 30 वर्षों तक स्पार्टा और पलीपोनेशिया के साथ युद्ध ने एथेन्स की प्रतिष्ठा मिट्टी में मिला दी। 404 ई. पू. में एक क्रान्ति द्वारा एथेन्स में लोकतन्त्र के स्थान पर तीस निरंकुशों का शासन स्थापित हुआ। प्लेटो को शासन में भाग लेने के लिए आमन्त्रित किया गया लेकिन उसने शासन में भाग लेने से इन्कार कर दिया। शीघ्र ही दूसरी क्रान्ति द्वारा एथेन्स में तीस निरंकुशों के स्थान पर पुनः प्रजातन्त्र की स्थापना की गई। लेकिन इस शासन के दौरान सुकरात की ने उसके दिल में प्रजातन्त्र के प्रति घणा पैदा कर दी। म त्यु
वह 18 या 20 वर्ष की आयु में सुकरात की ओर आकर्षित हुआ । यद्यपि प्लेटो तथा सुकरात में कुछ विभिन्नताएँ थीं लेकिन सुकरात की शिक्षाओं ने इसे अधिक आकर्षित किया। प्लेटो सुकरात का शिष्य बन गया। सुकरात के विचारों से प्रेरित होकर ही प्लेटो ने राजनीति की नैतिक व्याख्या की, सद्गुण को ज्ञान माना, शासन कला को उच्चतम कला की संज्ञा दी और विवेक पर बल दिया। 399 ई. पू. में सुकरात को म त्यु दण्ड दिया गया तो प्लेटो की आयु 28 वर्ष थी। इस घटना से परेशान होकर वह राजनीति से विरक्त होकर एक दार्शनिक बन गए। उसने अपनी रचना 'रिपब्लिक' में सुकरात के सत्य तथा न्याय को उचित ठहराने का प्रयास किया है। यह उसके जीवन का ध्येय बन गया। वह सुकरात को प्राणदण्ड दिया जाने पर एथेन्स छोड़कर मेगरा में चला गया। क्योंकि वह लोकतन्त्र से घणा करने लग गया था। मेगरा जाने पर 12 वर्ष का इतिहास अज्ञात है। लोगों का विचार है कि इस दौरान वह इटली, यूनान और मिस्र आदि देशों में घूमता रहा। वह पाइथागोरस के सिद्धान्तों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए 387 ई. पू. में इटली और सिसली गया। सिसली के राज्य सिराक्यूज में उसकी भेंट दियोन तथा वहाँ के राजा डायोनिसियस प्रथम से हुई। उसके डायोनिसियस से कुछ बातों पर मतभेद हो गए और उसे दास के रूप में इजारन टापू पर भेज दिया गया। उसे इसके एक मित्र ने वापिस एथेन्स पहुँचाने में उसकी मदद की।
प्लेटो ने 386 ई. पू. में इजारन टापू से वापिस लौटकर अपने शिष्यों की मदद से एथेन्स में अकादमी खोली जिसे यूरोप का प्रथम विश्वविद्यालय होने का गौरव प्राप्त है। उसने जीवन के शेष 40 वर्ष अध्ययन-अध्यापन कार्य में व्यतीत किए। प्लेटो की इस अकादमी के कारण एथेन्स यूनान का ही नहीं बल्कि सारे यूरोप का बौद्धिक केन्द्र बन गया। उसकी अकादमी में गणित और ज्यामिति के अध्ययन पर विशेष जोर दिया जाता था। उसकी अकादमी के प्रवेश द्वार पर यह वाक्य लिखा था- "गणित के ज्ञान के बिना यहाँ कोई प्रवेश करने का अधिकारी नहीं है।" यहाँ पर राजनीतिज्ञ, कानूनवेता और दार्शनिक शासक बनने की भी शिक्षा दी जाती थी।
डायोनिसियस प्रथम की मत्यु के बाद 367 ई. पू. डायोनिसियस द्वितीय सिराक्यूज का राजा बना। अपने मित्र दियोन के कहने पर वह वहाँ जाकर राजा को दर्शनशास्त्र की शिक्षा देने लग गया। इस दौरान राजा के चाटुकारों ने दियोन के खिलाफ बोलकर उसे देश निकाला दिलवा दिया और उसकी सम्पत्ति व पत्नी जब्त कर ली। इससे नाराज प्लेटो एथेन्स वापिस चला गया। 361 ई. पू. में डायोनिसियस ने उसे दोबारा सिराक्यूज आने का निमन्त्रण दिया, परन्तु वह यहाँ आने को तैयार नहीं था, लेकिन तारेन्तय के दार्शनिक शासक की प्रेरणा से वह वहाँ आकर डायोनियस को दर्शनशास्त्र का ज्ञान देने लग गया। लेकिन दोबारा डायोनिसियस व प्लेटो में सैद्धान्तिक बातों पर मतभेद हो गए और वह वापिस एथेन्स आ गया। इससे उसकी आदर्शवादिता को गहरा आघात पहुँचा और वह व्यावहारिकता की ओर मुड़कर The Laws' नामक ग्रन्थ लिखने लग गया। अपने किसी शिष्य के आग्रह पर वह एक विवाह समारोह में शामिल हुआ और वहीं पर सोते समय 81 वर्ष की अवस्था में उसकी म त्यु हो गयी।
सुकरात का प्रभाव (Influence of Socrates)
प्लेटो का दर्शन सिर्फ उसकी काल्पनिक मस्तिष्क की ही उपज नहीं, अपितु परिवार, देश, काल एवं पूर्व कालीन दार्शनिकों के विचारों से भी प्रभावित है, राजनीतिज्ञों के परिवार से सम्बन्धित होने के कारण वह स्वभाव से ही राजनीतिक समस्याओं में रुचि लेने लगा था। प्लेटो के विचारों पर तत्कालीन सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक परिस्थितियों के प्रभाव के साथ पूर्ववर्ती दार्शनिकों, पाईथागोरस, पार्मिनीडिज, हीराक्लीटस, सुकरात आदि विचारकों का भी प्रभाव पड़ा, लेकिन उपर्युक्त सभी परिस्थितियों व विचारकों में से प्लेटो पर सुकरात का प्रभाव कुछ ज्यादा ही था। वह 20 वर्ष की आयु में सुकरात के सम्पर्क में आया और आजीवन उसका शिष्य रहा। सुकरात की जो आकृति उसके हृदयपटल पर अंकित हो चुकी थी, वह कभी धूमिल नहीं हुई। प्रो. मैक्सी कहते हैं कि- "प्लेटो में सुकरात पुनर्जीवित हो गया।. प्लेटो के मस्तिष्क और आत्मा ने अपने गुरु के विचारों और भावनाओं को पूर्ण रूप से हृदयंगम कर लिया।" सुकरात का प्लेटो पर निम्नलिखित प्रभाव है:
1. सद्गुण ही ज्ञान है (Virtue is Knowledge) :
प्लेटो की पुस्तक रिपब्लिक का मुख्य विचार यही है कि 'सद्गुण ही ज्ञान है'। प्लेटो ने यह विचार अपने गुरु सुकरात से ग्रहण किया है। सुकरात सद्गुण और ज्ञान को एक सिक्के के दो पहलू मानता था। सुकरात के अनुसार सत्य ज्ञान ही सद्गुण है। सत्य कभी अकल्याणकारी नहीं हो सकता। ज्ञान सत्य की आत्मानुभूति है। सत्य को आचरण में लाए बिना सच्चे ज्ञान की अनुभूति निरर्थक व निष्फल है। मेयर के शब्दों में- "यदि हम ज्ञान और आचरण को एक मानें, तभी एक स्थायी मापदण्ड बना सकते हैं। जिस ज्ञान का आचरण के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है, जो ज्ञान केवल ज्ञान के लिए सम्पादित किया जाता है वह ज्ञान निरर्थक है। ज्ञान केवल कुछ सूचनाओं का संकलन मात्र नहीं है। इसका चरित्र निर्माण के साथ गहरा सम्बन्ध है। ज्ञान बुद्धि के माध्यम से सम्पूर्ण व्यक्तित्व को प्रभावित करता है। यह इच्छा शक्ति और भावनाओं का निर्माण करता है। साहस, संयम, न्याय आदि सभी गुणों की उत्पत्ति ज्ञान से होती है। साहसी व्यक्ति वही बन सकता है, जो भय तथा निर्भीकता का ज्ञान रखता हो।" प्लेटो की पुस्तक रिपब्लिक का सार 'सद्गुण ही ज्ञान है' का सिद्धान्त है जो सुकरात की सबसे महत्त्वपूर्ण देन है।
2. सद्गुण का स्वरूप (Nature of Virtue) :
सुकरात की तरह प्लेटो का भी यह मानना था कि प्रत्येक वस्तु की भलाई या उत्कृष्टता इस बात में है कि उसमें वह गुण अवश्य हो जिसकी सम्पूर्ति के लिए उसका जन्म हुआ है। उत्कृष्टता शब्द सद्गुण के लिए प्रयुक्त यूनानी शब्द 'अरैती' (Arete) का हिन्दी शब्दार्थ है। चाकू का गुण काटना है। इसका अच्छा या बुरापन इस बात पर निर्भर करता है कि यह कितनी अच्छी या बुरी तरह काट सकता है। ठीक इसी प्रकार मनुष्य भी अन्य मनुष्यों की तुलना में ही अच्छा या बुरा हो सकता है। इसकी अच्छाई और बुराई दो तरह की होती है एक अपनी वत्ति सम्बन्धी एवं दूसरी व्यवसाय सम्बन्धी कोई व्यक्ति अच्छा या बुरा चित्रकार, मूर्तिकार, डॉक्टर या वकील हो सकता है, किन्तु वही मनुष्य अच्छा हो सकता है जिसमें दूसरे मनुष्य को अच्छे बनाने वाले गुण प्रचुर मात्रा में विद्यमान हो। सुकरात की तरह प्लेटो भी एक अच्छे व्यक्ति में विवेक, साहस, संयम, न्याय चार गुणों का होना आवश्यक मानते हैं, क्योंकि ये चारों गुण मानवीय गुण और उत्कृष्टता (Human Virtue and Goodness) का निर्माण करते हैं।
3.राजनीति एक कला है (Politics is an Art) :
प्लेटो ने भी सुकरात का अनुसरण करते हुए शासन संचालन को डॉक्टरी या नौ-चालन की तरह एक कला माना है। इसलिए शासन के विशेषज्ञों को ही शासन संचालन का अधिकार दिया जाना चाहिए। जिस प्रकार हर व्यक्ति एक कुशल मूर्तिकार या निपुण संगीतज्ञ नहीं हो सकता, उसी प्रकार हर व्यक्ति योग्य शासक भी नहीं बन सकता। सुकरात ने कहा था, "जनता बीमार है, इसलिए हमें अपने स्वामियों का इलाज कराना चाहिए।" प्लेटो भी यह मानता है कि जनता बीमार रोगी के समान होती है और डॉक्टर एक सामाजिक चिकित्सक की तरह रोगी को ठीक करने के लिए कड़वी दवाइयाँ भी देता है। ठीक उसी तरह आदर्श शासक को जनता की बीमारी ठीक करने के लिए उसे कड़वी दवाई देनी पड़ती है।
4.सत्य का सिद्धान्त (Theory of Reality)
राजनीतिक चिन्तन में सुकरात के वास्तविकता के सिद्धान्त को आदर्शवाद का जनक माना जाता है। प्रो. कोकर के अनुसार, "प्लेटो के दार्शनिकवाद का आधार सुकरात का वास्तविक सिद्धान्त है।" प्लेटो सुकरात की इस धारणा से पूर्णतः सहमत है कि वस्तुओं की वास्तविकता उनके मूर्त रूप में नहीं वरन् उनके विचार में है। किसी वस्तु की वास्तविक सत्ता इन्द्रियों द्वारा प्रतीत नहीं होती है, वरन् उसकी वह अमूर्त धारणा है जो कि उसके मन में विद्यमान रहती है। मूर्त रूप वास्तविक सत्ता की एक अपूर्ण अभिव्यक्ति है; उसकी पूर्णता तो उस वस्तु के विचार में ही रहती है।
5. ज्ञान का सिद्धान्त (Theory of Knowledge) :
प्लेटो भी सुकरात की तरह ज्ञान को दो प्रकार का मानता है- (1) सापेक्ष (Relative) (2) निरपेक्ष (Absolute) सापेक्ष ज्ञान इन्द्रियों द्वारा प्राप्त अपूर्ण ज्ञान होता है जो देश, काल की परिस्थितियों से प्रभावित होने के कारण बदलता रहता है। इसका स्वरूप ज्ञाता की मनोव त्ति तथा द ष्टिकोण पर भी निर्भर करता है। इस तरह का ज्ञान, ज्ञान न होकर ज्ञान की तरह होता है। इसके विपरीत निरपेक्ष ज्ञान अपरिवर्तनशील, वैज्ञानिक, वस्तुनिष्ठ (Objective) तथा तर्कसंगत (Rational) होता है। इस ज्ञान की अनुभूति विशुद्ध तथा निर्लिप्त बुद्धि को ही हो सकती है। यह देश, काल की सीमा से बाहर की वस्तु होता है। वास्तविक ज्ञान निरपेक्ष ज्ञान होता है, इसलिए मानव जीवन का परम लक्ष्य निरपेक्ष ज्ञान है।
6.दार्शनिक शासक की तानाशाही का सिद्धान्त (Theory of Dictatorship of Philosopher King) :
सुकरात लोकतन्त्र को मूर्खों व अज्ञानियों का शासन मानता था, इस व्यवस्था के अन्तर्गत सभी को वोट देने, शासन कार्यों में भाग लेने, न्याय करने का समान अधिकार प्राप्त था। कभी-कभी शासकों को पाँसा फेंककर या लाटरी द्वारा चुना जाता था। वह एथेन्स की सरकार की घोर निन्दा करता था। इसलिए अज्ञानी शासकों ने सुकरात को प्राणदण्ड दे दिया। प्लेटो ने भी व्यावहारिक तौर पर एथेन्स प्रजातन्त्र की बुराइयाँ देख ली थीं। इसलिए उसने भी अपने गुरु सुकरात की तरह प्रजातन्त्र की निन्दा की और लोकतन्त्र के स्थान पर दार्शनिक शासक की तानाशाही का समर्थन किया।
7. द्वन्द्वात्मक पद्धति (Dialectical Method)
सुकरात के समय में यूनान में वाद-विवाद द्वारा अपने विरोधी विचारों का खण्डन तथा अपनी विचारधारा को तर्कसंगत ठहराने के प्रयास किये जाते थे। यह सत्य अनुसंधान करने की पद्धति द्वन्द्वात्मक पद्धति कहलाती थी। प्लेटो ने भी इस वाद-विवाद की पद्धति द्वारा सत्य तक पहुँचने के प्रयास किये। उसकी समस्त रचनाएँ वाद-विवाद के रूप में संवादों पर ही आधारित हैं। अतः प्लेटो ने यह पद्धति सुकरात से ग्रहण की।
इस प्रकार सुकरात का प्लेटो पर प्रभाव स्पष्ट है। बर्नेट के शब्दों में- "प्लेटो का दर्शन सुकरात के ही ज्ञान के जीवाणुओं का वह विकास है जो प्लेटोनिक निष्कर्षो में 'रिपब्लिक' में उद्भूत हुआ है।" मैक्सी के शब्दों में "प्लेटो के रूप में सुकरात ने फिर जन्म लिया। इस अर्थ में नहीं कि प्लेटो अपने गुरु की सच्ची नकल था वरन् इस अर्थ में कि प्लेटो के मस्तिष्क और आत्मा ने अपने गुरु के विचारों और मान्यताओं को पूर्णता से आत्मसात् किया और उसने अपने उच्च बुद्धि कौशल से एक ऐसे सुकरात की रचना की जो एथेन्स की गलियों में घूमने वाले सुकरात से उच्चतर था। प्लेटो द्वारा रचित सुकरात एक प्रकार का देवता है, जो केवल वे ही बातें नहीं कहता जिनकी वास्तविकता की सुकरात से आशा की जा सकती है वरन् वह ऐसी बातें भी कहता है जो प्लेटो की चमत्कारपूर्ण कल्पना उससे कहलाना चाहती है।"
इस प्रकार संक्षेप में कहा जा सकता है कि प्लेटो की 'रिपब्लिक' में सुकरात से ग्रहण किए गए सिद्धान्तों के 'सद्गुण ही ज्ञान है' का सिद्धान्त, 'सत्य का सिद्धान्त', 'ज्ञान का सिद्धान्त' बहुत महत्त्वपूर्ण है। मनुष्य के अच्छा बनने के लिए साहस, विवेक, संयम और न्याय चार गुणों का होना आवश्यक है। वह शासन को एक कला मानता है। शासन का संचालन तो दार्शनिक राजा के ही हाथ में ठीक रहता है। अतः प्लेटो पर सुकरात का प्रभाव स्पष्ट व अमिट है। इसलिए प्लेटो सुकरात का ऋणी है।
समकालीन परिस्थितियाँ
(Contemporary Situations)
किसी भी विचारक को समझने के लिए उसके वातावरण के बारे में समझना आवश्यक होता है। प्लेटो के विचार भी तत्कालीन वातावरण से अवश्य प्रभावित हुए हैं। प्लेटो ने अपने समय के नगर राज्यों, विशेषकर एथेन्स में कुछ त्रुटियाँ देखीं जिन पर उसने अपनी रचनाओं में विचार किया है।
उस समय एथेन्स में वातावरण निम्नलिखित परिस्थितियों पर आधारित था :
1. व्यक्तिवाद का अतिरेक अथवा स्वार्थ का प्रभुत्व (Excessive Individualism or Dominance of Selfishness): उस समय व्यक्तिवाद चरम सीमा पर था। लोग अपने अपने स्वार्थों की पूर्ति में लगे हुए थे। सत्तारूढ़ शासक वर्ग अपने राजनीतिक अधिकारों का प्रयोग अपने आर्थिक हितों की पूर्ति के लिए कर रहा था। राजनीतिक पदों की कोई पवित्रता नहीं थी। वे शासक वर्ग के हितों को बढ़ाने वाले थे। राजनीति में सोफिस्टों का ही प्रभाव था। सोफिस्टों के अनुसार राज्य व्यक्तियों का एक समूह मात्र था और इसका लक्ष्य व्यक्ति था। व्यक्तिवाद की इस भावना ने एथेन्स को विरोधी नगरों में बाँट दिया था। नगर राज्यों में अल्पतन्त्रीय सरकारें थीं और उनकी स्थिति प्रजातन्त्रीय नगरों से भी बुरी थी। शासक दल धनी वर्ग का प्रतिनिधि था हितों की आपसी टक्कर ने राजनीतिक अस्थिरता फैला रखी थी। अल्पतन्त्रों और प्रजातन्त्रों में पाई जाने वाली राजनीति धनलिप्सा और स्वार्थ सिद्धि का उपकरण मात्र थी। परस्पर मतभेदों ने एथेन्स का परस्पर विरोधी राज्यों में बाँट रखा था। प्लेटो के शब्दों में "प्रत्येक राज्य में दो भिन्न-भिन्न राज्य थे अमीरों का राज्य तथा गरीबों का राज्य।" प्लेटो ने देख लिया था कि इस समस्या का भूतकाल स्वार्थ की प्रवत्ति अथवा धनलिप्सा था। अतः इस बुराई को दूर करने के लिए प्लेटो ने शासकों के लिए धन, सम्पत्ति अथवा घर-बार अपनाने के अधिकार का विरोध किया।
2. अव्यवसायवादी हस्तक्षेप (Amateurish Meddlesomeness) :
उस समय एथेन्स में अव्यवसायवादी हस्तक्षेप की मनोव त्ति थी तथा यह लॉटरी की प्रथा में व्यक्त होती थी। लाटरी द्वारा किसी भी अज्ञानी या मूर्ख व्यक्ति को राजनीतिक क्रियाओं के लिए चुन लिया जाता था। प्लेटो इस दोष से अच्छी तरह परिचित था। वह कार्यात्मक विशिष्टीकरण का सुझाव देता है जिसका तात्पर्य था कि प्रत्येक व्यक्ति वही कार्य करे जिसके लिए वह अपने स्वभाव एवं आत्मा के अनुसार योग्य हो और जिसमें उसे कुशलता व दक्षता प्राप्त हो। वह दूसरे के क्षेत्र में हस्तक्षेप न करे। उसका विचार था कि शासकों को दर्शनशास्त्र तथा राज्य शासन की कलाओं का विशेष प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए ताकि 'अव्यवसायीवादी हस्तक्षेप का सिद्धान्त' नष्ट हो सके और शासन क्रियाओं में योग्य व्यक्ति ही भाग ले सके।
3.अज्ञानता का शासन (Rule of Ignorance) एथेन्स में प्लेटो के समय शासन पर अज्ञानी व मूर्ख राजाओं का अधिकार था। अपनी अज्ञानता के कारण उन्होंने सुकरात को भी म त्यु दण्ड दे दिया था। इस घटना से प्लेटो बहुत दुखी था। 'तीस निरंकुशों के शासन के अन्त पर स्थापित प्रजातान्त्रिक शासन पहले वाले ही दोषों से ग्रसित था। शासक वर्ग लॉटरी द्वारा चुना जाता था। मूर्ख व अयोग्य व्यक्ति भी इस पद पर आसीन हो सकता था। प्लेटो ने 'सद्गुण ही ज्ञान है' की उक्ति के आधार पर दार्शनिक राजा का सुझाव दिया। प्लेटो का प्रमुख उद्देश्य अज्ञानी शासकों के शासन को स्पष्ट करना था।
4.आर्थिक असमानता (Economic Inequality) :
प्लेटो के समय में शासक वर्ग धनी वर्ग का ही प्रतिनिधित्व करता था। राजनीति धन कमाने का साधन थी। जनता में अमीर-गरीब का अन्तर शीर्ष पर था। शासक वर्ग धन-लिप्सा के कारण जनता का शोषण कर रहा था। स्वार्थ की भावना जनकल्याण की भावना से सर्वोपरि थी। अल्पतन्त्र व प्रजातन्त्र दोनों के शासक राजनीति को आर्थिक लाभ का साधन मानते थे। आर्थिक असमानता ही सामाजिक संघर्ष का प्रमुख कारण थी। बार्कर के शब्दों में "अल्पतन्त्रों ओर प्रजातन्त्रों में पाई जाने वाली राजनीति तथा धन-लिप्सा के मिश्रण से उत्पन्न संभ्रान्ति ही नागरिक कलहों अथव सामाजिक संघर्ष का प्रमुख कारण थी।"
5. राजनीतिक अस्थिरता (Political Instability)
प्लेटो के समय में एथेन्स में राजनीतिक वातावरण दूषित हो चुका था। यूनान छोटे-छोटे राज्यों में बँट गया था। सभी राज्य स्वार्थ सिद्धि की प्रव त्ति पर आधारित थे। राज्य भी उप-राज्यों में बँटा हुआ था। शासन की बागडोर अयोगय शासकों के हाथों में थी। निरन्तर राजनीतिक विरोध की स्थिति बनी रहती थी। प्लेटो ने अपने जीवनकाल में ही 30 वर्षों तक एथेन्स को स्पार्टा तथा फ्लीयोनेशिया के साथ संघर्षरत देखा था। क्रान्ति या विद्रोह द्वारा एथेन्स में तीस 'निरंकुश' के शासन की स्थापना हुई थी। जनता व शासक हिंसात्मक कार्यों व असंवैधानिक कार्यों में लिप्त थे। निरन्तर राजनीतिक अस्थिरता का वातावरण बना रहता था। इससे दुखी होकर प्लेटो ने दार्शनिक राजा का शासन स्थापित करने की बात कही ताकि इस राजनीतिक अस्थिरता के वातावरण को खत्म किया जा सके।
उपर्युक्त विश्लेषण से स्पष्ट हो जाता है कि प्लेटो ने तत्कालीन परिस्थितियों से प्रभावित होकर अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ रिपब्लिक (Republic) की रचना की और तत्कालीन एथेन्स की समस्त बुराइयों को दूर करने के लिए सुझाव प्रस्तुत किए।
महत्त्वपूर्ण रचनाएँ (Impotant Works)
प्लेटो की रचनाएँ काल के आधार पर चार भागों में बाँटी जा सकती हैं।
प्रथम वर्ग में सुकरात से सम्बन्धित रचनाएँ हैं। इन रचनाओं के विचार सुकरान्त के विचारों की ही अभिव्यक्ति है। अपोलॉजी (Apology), क्रीटो (Crito), यूथीफ्रो (Euthyphro), जोर्जियस (Gorgias) आदि प्रथम वर्ग की रचनाएँ हैं। ये सभी रचनाएँ सुकरात की मत्यु से सम्बन्धित हैं, प्रथम दो रचनाएँ राज्य की आज्ञा का पालन तथा उसकी सीमा से सम्बन्धित हैं।
द्वितीय वर्ग की रचनाएँ 380 ई. पू. की है। ये प्लेटो के अपने विचारों से सम्बन्धित हैं। इस वर्ग में मीनो (Meno), प्रोटागोरस (Protagoros), सिंपोजियम (Symposium), फेडो (Phaedo), रिपब्लिक (Republic) और फेड्रस (Phaedrus) आदि रचनाएँ आती हैं। ये सभी रचनाएँ प्लेटो की चरमोत्कृष्ट साहित्यिक एवं दार्शनिक प्रतिभा को प्रतिबिम्बित करती है।
तीसरे वर्ग में संवाद या कथोपकथन (Dialogues) आते हैं जिनका सम्बन्ध प्लेटो की शैली, विचार और व्यक्तित्व से अधिक द्वन्द्वात्मक पद्धति से है। पार्मिनीडिज (Parmenides), थीटिटस (Theaetetus), सोफिस्ट (Sophist), स्टेट्समैन (Statesman) आदि रचनाएँ आती हैं।
अन्तिम वर्ग में फीलिबस (Philobus ), टायमीयस (Timaeus), लॉज (Laws) आदि ग्रन्थ आते हैं। लॉज प्लेटो का अन्तिम ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में सुकरात एक चरित्र के रूप में पूर्णतः विलीन हो जाता है। इन रचनाओं में प्लेटो की सर्वोत्तम रचना रिपब्लिक (Republic) है जिसके द्वारा प्लेटो राजनीति, दर्शन, शिक्षा, मनोविज्ञान, कला, चिन्तन के इतिहास ,नीतिशास्त्र आदि के क्षेत्र में एक मेधावी व सर्वश्रेष्ठ विचारक के रूप में प्रतिष्ठित हुआ। यह रचना राजनीतिक में प्लेटो की एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण व अमूल्य देन मानी जाती है।
अध्ययन शैली और पद्धति ( Style and Method of Study )
प्लेटो ने प्रत्येक विषय को स्पष्ट करने के लिए सशक्त, रोचक और आकर्षक संवाद शैली अपनाई है उसकी रचनाओं में केवल एक पात्र का दूसरे पात्र से वार्तालाप ही नहीं होता बल्कि दर्शन कविता के साथ, विज्ञान कला के साथ, सिद्धान्त व्यवहार के साथ, राजनीति अर्थशास्त्र के साथ, भावना विवेक के साथ, शरीर आत्मा के साथ, व्यायाम संगीत के साथ स्वर में स्वर मिलाकर बोलते हुए प्रतीत होते हैं। इसके चलते जहाँ प्लेटो को समझना कुछ कठिन होता है, वहाँ उन्हें पढ़ना उतना ही आनन्द देता है। क्रॉसमैन ने लिखा है- "मैं जितना अधिक रिपब्लिक को पढ़ता हूँ, उतना ही इससे घ णा करता हूँ, फिर भी इसे बार-बार पढ़े बिना अपने आप को रोक नहीं पाता हूँ।" उसके विचारों में औपन्यासिक रोचकता है। उसने पौराणिक द ष्टान्तों एवं कथाओं को शामिल करके रचनाओं को और अधिक मनोरंजक बना दिया है। प्लेटो का दर्शनशास्त्र भव्य रूप में प्रकट हुआ है। अतएव उसने ऐसी शैली अपनाई है जो सत्य और सौन्दर्य के समन्वय को प्रकट करती है।
प्लेटो ने अपने चिन्तन में अनेक पद्धतियों का प्रयोग किया है। ये पद्धतियाँ नैतिक, राजनीतिक और आध्यात्मिक समस्याओं के विश्लेषण के लिए प्रयोग में लाई गई हैं जिनमें प्रमख निम्न प्रकार से हैं :
प्लेटो की सबसे प्रमुख पद्धति द्वन्द्वात्मक पद्धति (Dialectical Method) है। प्लेटो ने यह पद्धति अपने गुरु सुकरात से ग्रहण की है। प्लेटो ने रिपब्लिक, स्टेटसनैन, लॉज, क्रीटो आदि ग्रन्थों में इस पद्धति का प्रयोग किया है। यह पद्धति चिन्तन की वह पद्धति है, जिसके द्वारा प्रश्नोत्तर एवं तर्क-वितर्क के आधार पर किसी सत्य की खोज की जाती है। इस पद्धति के द्वारा मस्तिष्क में छिपे विचारों को उत्तेजित कर उन्हें सत्य की ओर ले जाने का प्रयास किया जाता है। इसलिए अपने मौलिक रूप में द्वन्द्वात्मक (Dialectical) पद्धति का अर्थ वार्तालाप की प्रक्रिया से है; प्रश्न पूछने और उत्तर देने की शैली से है; तर्क-वितर्क की पद्धति से है; किसी विषय पर अपना मत प्रकट करने और दूसरे के मत को जानने की विधि से है। वही व्यक्ति किसी विषय पर अपना मत प्रकट कर सकता है, जिसे उस विषय का ज्ञान होता है। ग्रीक जगत में यह विधि कोई नई नहीं है। सुकरात ने कहा कि जब लोगों में परस्पर एक साथ मिलाकर विचार करने की प्रथा आई, तभी इस विधि का जन्म हुआ। लेकिन प्लेटो ने इसे वार्तालाप की प्रणाली मात्र न मानकर इसे सत्य की खोज करने की विधि माना, इस विधि का प्रयोग प्लेटो ने प्रचलित विश्वासों व धारणाओं का खण्डन करके नए विश्वासों व धारणाओं की स्थापना हेतु किया। प्लेटो का विश्वास था कि एक विचार को धराशायी करके ही दूसरे विचार को प्रतिष्ठित किया जा सकता है। बार्कर का मत है कि "वैचारिक क्षेत्र में सत्य को तभी एक विजयी के रूप में प्रतिष्ठित किया जा सकता है जब एक रुद्र विचार दूसरे विचार को निगलता है।" प्लेटो का विश्वास था कि धीरे-धीरे ही सत्य की ओर बढ़ा जा सकता है। विशिष्ट विचार को 'अनेक में एक' और 'एक में अनेक' की खोज द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। यह विशिष्ट विचार ही सत्य है। सत्य की खोज ही इस पद्धति का उद्देश्य है। डायलेक्टिक की उत्पत्ति इसी मौलिक तथ्य से होती है कि सभी वस्तुओं में एकता और अनेकता का सामंजस्य पाया जाता है। उसने अपने ग्रन्थ रिपब्लिक में यह स्पष्ट कर दिया है कि किस प्रकार प्रत्येक वस्तु का रूप दूसरी वस्तुओं के रूप से जुड़ा होता है। सभी वस्तुओं के रूप एक-दूसरे से मिलकर सत् या शिव का स्वरूप धारण करते हैं। प्लेटो ने संवाद प्रणाली के माध्यम से पात्रों के द्वारा अन्तिम सत्य का पता लगाने की कोशिश की है। उसने संवाद शैली को विचार क्रान्ति के सर्वोत्तम एवं रुचिकर साधन के रूप में प्रयोग किया है। इससे पात्रों व श्रोताओं के दिमागों में सत्य को हँसने की आवश्यकता नहीं होती। प्लेटो ने इस पद्धति का प्रयोग तीन उद्देश्यों के लिए किया है- (1) सत्य की खोज के लिए (2) सत्य की अभिव्यक्ति और प्रचार के लिए (3) सत्य की परिभाषा के लिए।
द्वन्द्वात्मक पद्धति एक महत्त्वपूर्ण पद्धति होने के बावजूद भी आलोचना का शिकार हुई। आलोचकों ने कहा कि इस पद्धति में प्रश्न अधिक पूछे जाते हैं, उत्तर कम दिए जाते हैं, इसलिए यह मस्तिष्क को भ्रांत करती है। यह सत्य को असत्य और असत्य को सत्य सिद्ध कर सकती है। सत्य की प्राप्ति वाद-विवाद से न होकर मनन से ही हो सकती है। वाकपटुता के बल पर धूर्त व्यक्ति समाज में अपना स्थान बना सकते हैं। यह पद्धति शंकाओं का समाधान करने की बजाय आंति ही पैदा करती है। लेकिन अनेक त्रुटियों के बावजूद भी इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता कि प्लेटो ने इसके आधार पर न्याय सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। यह विचार और चिन्तन करने की शक्ति को उत्प्रेरित करने की क्षमता रखती है।
प्लेटो ने अपने राजनीतिक चिन्तन में निगमनात्मक पद्धति (Deductive Method) का भी काफी प्रयोग किया है। इस पद्धति का सार यह है कि इसमें सामान्य से विशेष की ओर पहुँचा जाता है। इसका अर्थ यह है कि सामान्य सिद्धान्त के आधार पर विशेष के सम्बन्ध में निष्कर्ष निकाले जाते हैं। प्लेटो ने दार्शनिक राजा का सिद्धान्त इसी पद्धति पर आधारित किया है। प्लेटो के अनुसार, "सद्गुण ही ज्ञान है"। दार्शनिक ज्ञानी होते हैं, इसलिए वे सद्गुणी भी होते हैं और उन्हें ही शासक बनना चाहिए। इसी पद्धति का प्रयोग करके प्लेटो ने वर्ग-सिद्धान्त, शिक्षा-सिद्धान्त और दार्शनिक शासक का सिद्धान्त प्रतिपादित किया है। प्लेटो ने अपने सामान्य सिद्धान्त के आधार पर परम्पराओं और रूढ़ियों को तिलांजलि देते हुए निगमनात्मक पद्धति का ही प्रयोग किया है। इस पद्धति को सामान्य से विशिष्ट की ओर चलने वाली पद्धति भी कहा जाता है।
प्लेटो ने अपने चिन्तन में विश्लेषणात्मक पद्धति (Analytical Method) का भी प्रयोग किया है। इस पद्धति में वस्तु के मौलिक तत्त्वों को अलग-अलग करके अध्ययन किया जाता है ताकि सम्पूर्ण वस्तु का पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो सके। वह आत्मा के तीन तत्त्व • विवेक, साहस एवं त ष्णा को मानकर, इनके प थक्-प थक् अध्ययन द्वारा मानव स्वभाव का वर्णन करता है। वह दार्शनिक राजा, सैनिक और उत्पादक वर्ग के अलग-अलग अध्ययन के आधार पर इनसे निर्मित राज्य का विश्लेषण करता है
प्लेटो ने अपने चिन्तन में साद श्य विधि (Analogy Method) का भी प्रयोग किया है। उसने अपने साद श्यों ओर पौराणिक कथाओं का प्रयोग किया है। उसने इन्हें कहीं तो कलाओं से लिया है और कहीं पशु-जगत् से रिपब्लिक में कुत्ते के साद श्य को अनेक स्थानों पर तर्क का आधार बनाया गया है कि जिस प्रकार चौकीदार के काम के लिए कुत्ता व कुत्तिया एक समान हैं, उसी प्रकार राज्य के संरक्षक बनने के लिए पुरुष और स्त्री समान हैं। कलाओं के साद श्य में वह राजनीति को कला मानता है। अतः अन्य कलाओं की भाँति इसमें भी ज्ञान का आधार होना चाहिए। रिपब्लिक में दार्शनिक राजा की धारणा का आधार अन्य कलाकारों के सादश्य पर आधारित है। उसका मानना है कि प्रत्येक राजनीतिज्ञ को अपने कार्य का पूरा ज्ञान होना चाहिए । उसका कहना है कि कलाकार की भाँति राजनीतिक कलाकार को भी व्यवहार के नियमों के प्रतिबन्ध से मुक्त रखना चाहिए । इस पद्धति का अर्थ है कि प्रत्येक वस्तु का कुछ उद्देश्य है और वह अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए निरन्तर प्रयासरत है और उसी की तरफ अग्रसर होती है। अर्थात् प्रत्येक वस्तु की गति उसे उद्देश्य द्वारा ही निरूपित होती है। प्लेटो के चिन्तन में उसके शिक्षा सिद्धान्त का दार्शनिक आधार सोद्देश्यता ही है। अतः प्रत्येक वास्तविक राज्य का उद्देश्य आदर्श राज्य की तरफ उन्मुख होना है।
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्लेटो ने अपने चिन्तन में संवाद शैली का प्रयोग करते हुए बहुत सी पद्धतियों का अनुसरण किया है। उसकी द्वन्द्वात्मक पद्धति का हीगेल और मार्क्स के विचारों पर, सोद्देश्य पद्धति का अरस्तू, दाँते एवं ग्रीन पर प्रभाव पड़ा है। प्लेटो की अध्ययन-पद्धति अनेक पद्धतियों का मिश्रण है। प्लेटो ने आवश्यकतानुसार सभी पद्धतियों का प्रयोग किया है।