मिल द्वारा बेन्थम के उपयोगितावाद में किए गए संशोधन(Mill's Modifications of Bentham's Utilitarianism)
मिल के समय में बेन्थम के उपयोगितावाद की बहुत अधिक आलोचना हो रही थी। आलोचक विद्वानों का आरोप था कि यह कोरे भौतिक एवं ऐन्द्रिय सुख पर आधारित है। कई लेखकों ने इसे सूअर-दर्शन (Pig Philosophy) कहकर आलोचना की है। लेकिन जॉन स्टुअर्ट मिल बेन्थम के सच्चे शिष्य होने के नाते उसकी आलोचनाओं को सहन नहीं कर सकते थे। इसलिए वे इसके बचाव में आगे आए और उपयोगितावाद के ऊपर लगाए गए आरोपों को मुक्त करने के प्रयास शुरू कर दिए। लेकिन मिल ने बेन्थम के उपयोगितावाद का अन्धाधुन्ध अनुसरण करने की बजाय उसे कुछ परिवर्तनों के साथ पेश किया। उसने बेन्थम के भौतिकवाद के स्थान पर नैतिकता, अन्तःकरण और स्वतन्त्रता पर बल दिया। परन्तु बेन्थम के उपयोगितावाद के बचाव व संशोधन में वह इतना आगे निकल गया कि वह अपने वास्तविक मार्ग से लगभग हट सा गया। इसलिए अनेक विद्वानों ने कहा है कि "जो कुछ मिल ने लिखा है, उसका बेन्थम के उपयोगितावाद से कुछ लेना-देना नहीं है। उसने स्वयं भी कहा है कि- "मैं पीटर हूँ जिसने अपना गुरु नकार दिया है।"
उसके द्वारा बेन्थम के उपयोगितावाद में किए गए संशोधन निम्नलिखित हैं :-
1. सुखमापक गणनाविधि में संशोधन :-
मिल का कहना है कि इस विधि से सुख की मात्रा का आकलन निष्पक्ष रूप से नहीं किया जा सकता। सुख को वस्तुगत द ष्टि से नहीं मापा जा सकता। सुख एक आत्मपरक अनुभूति है जिसे सम्बन्धित व्यक्ति ही अनुभव कर सकता है। उसके अनुसार सुख का तात्पर्य केवल इन्द्रिय-सुख ही नहीं, बल्कि मानसिक एवं नैतिक सुख से भी होता है। इस आधार पर मिल ने सुखमापक गणना विधि को मूर्खतापूर्ण बताया है। उसका कहना है कि सुख की गणना दो सुख देने वाली वस्तुओं की प्रगाढ़ता की तुलना करके ही ज्ञात की जा सकती है। इसके लिए समुचित अनुभव का होना आवश्यक है। दोनों वस्तुओं के समुचित अनुभव के बिना सुख का पता नहीं लगाया जा सकता। इस प्रकार सुखमापक गणनाविधि (Felicific Calculus) हास्यास्पद व उपयोगितावाद के दुर्ग में एक दरार है।
2. सुखों में गुणात्मक अन्तर :-
मिल के अनुसार विभिन्न प्रकार के सुखों में अन्तर होता है। मिल ने बेन्थम के मात्रात्मक भेद का खण्डन करते हुए कहा है कि विभिन्न सुखों में गुणात्मक भेद भी होता है। उसका कहना है कि "कुछ सुख मात्रा में कम होने पर भी इसलिए प्राप्त करने योग्य होते हैं कि वे श्रेष्ठ और उत्कृष्ट कोटि के होते हैं।" जिन व्यक्तियों ने उच्चतर तथा निम्नतर दोनों प्रकार के सुखों का अनुभव हो, वे निम्नतर की तुलना में उच्चतर सुख को प्राथमिकता देते हैं। बेन्थम के इस कथन से कि- "यदि सुख की मात्रा समान हो तो पुश्पिन (एक खेल) भी इतना ही श्रेष्ठ है जितना काव्यपाठ " मिल सहमत नहीं है। इस सन्दर्भ में उसका कहना है कि- "एक सन्तुष्ट सूअर की तुलना में एक असन्तुष्ट मनुष्य होना अच्छा है, एक असन्तुष्ट सुकरात होना एक सन्तुष्ट मूर्ख से अच्छा है और यदि सूअर और मूर्ख उससे सहमत नहीं हैं तो उसका कारण यह है कि वे केवल अपने पक्ष को ही जानते हैं।" इस आधार पर मिल ने सुखों के गुणात्मक अन्तर को स्पष्ट किया है। उसका यह सिद्धान्त अधिक सन्तोषप्रद, सत्य और अनभवानुकूल प्रतीत होता है। इस प्रकार मिल के गुणात्मक अन्तर को स्वीकार करने का तात्पर्य यह होगा कि जीवन का लक्ष्य उपयोगिता न होकर श्रेष्ठतम सुख की प्राप्ति करना होता है।
3. अन्य व्यक्तियों का सुख :-
बेन्थम के अनुसार मनुष्य एक स्वार्थी प्राणी है जो सदैव अपने हित को ही पूरा करने में लगा रहता है। उसमें दूसरों के सुख-दुःख को समझने की योग्यता नहीं है। परन्तु मिल ने बेन्थम के इस विचार का खण्डन करते हुए कहा है कि मनुष्य केवल स्वार्थी ही नहीं, परमार्थी भी होता है। उसमें अपने सुख की इच्छा के साथ-साथ दूसरे के सुख के लिए त्याग करने की माखा भी विद्यमान रहती है। मिल का कहना है- "अपना सुख बिलकुल त्यागकर दूसरों के सुख का ध्यान रखना संसार की वर्तमान अपूर्ण व्यवस्था की दशा में वह सर्वश्रेष्ठ गुण है जो मनुष्य में पाया जाता है।" मिल के अनुसार सुख की प्राप्ति का सीधा प्रयास करना व्यर्थ है। उसका मानना है कि सुख की प्राप्ति तभी सम्भव है जब इसके लिए सीधा प्रयास न किया जाए। उसके अनुसार वे व्यक्ति सुखी हैं जो स्वयं की तुलना में दूसरों पर अपने विचार केन्द्रित करते हैं। इस तरह मिल ने बेन्थम के उपयोगितावादी दर्शन का खण्डन किया है।
4. इतिहास व परम्पराओं को महत्त्व : -
बेन्थम ने इतिहास व परम्पराओं की घोर उपेक्षा की थी। उसने कहा था कि उसके सर्वव्यापी उपयोगिता के सिद्धान्त पर आधारित सिद्धान्त सार्वदेशिक (Universal) महत्त्व के हैं। उसका कहना था कि उसके द्वारा तैयार किए गए कानून व शासन प्रणालियाँ संसार के किसी भी हिस्से में समान रूप से लागू किए जा सकते हैं। मिल ने बेन्थम की इस धारणा का खण्डन करते हुए कहा कि प्रत्येक देश और जाति का अपना इतिहास व परम्पराएँ अलग होती हैं। इतिहास व परम्परा का विकास उस देश की परिस्थितियों के अनुसार ही होता है। इसलिए प्रत्येक देश की शासन प्रणाली वहाँ की परम्पराओं व इतिहास से घनिष्ठ रूप से जुड़ी हुई है। बेन्थम द्वारा इतिहास व परम्परा का तिरस्कार करना वहाँ की जन भावनाओं का तिरस्कार करना है। ये उस शासन प्रणाली के शाश्वत मूल्य होते हैं जिनसे शासन प्रणालियाँ स्थायित्व का गुण प्राप्त करती हैं। इससे निष्कर्ष निकलता है कि अलग-अलग देशों में अलग-अलग शासन प्रणालियाँ ही पाई जाती हैं। उसका कहना था कि जिस देश में असमानता अधिक हो वहाँ लोकतन्त्र सफल नहीं हो सकता। उसने इसे भारत के लिए अनुपयुक्त शासन प्रणाली बताया है। इसलिए मिल ने इस संशोधन द्वारा इतिहास व परम्परा के महत्त्व पर प्रकाश डाला है।
5. राजनीतिक बनाम नैतिक सिद्धान्त :-
बेन्थम का विचार था कि राज्य के प्रति व्यक्तियों की निष्ठा स्वार्थपूर्ण कारणों पर आधारित है। राज्य का आदेश मानने के पीछे उनकी कोई नैतिक बाध्यता नहीं है। राज्य अपने नागरिकों का सुख बढ़ाने तथा पीड़ा कम करने के लिए ही अस्तित्व में रहता है। बेन्थम ने इस बात पर बल दिया है कि- "विधि निर्माता एवं शासक वर्ग सामाजिक नीतियों के निर्धारण तथा विधि-निर्माण में सुख के सिद्धान्त का प्रयोग करें।" इसके विपरीत मिल ने बेन्थम के उपयोगितावादी सिद्धान्त में परिवर्तन करते हुए कहा- "मनुष्य के राज्य के प्रति कुछ सार्वजनिक कर्त्तव्य तथा दायित्व होते हैं जिनकी उपयोगितावादी सिद्धान्त के द्वारा व्याख्या करना असम्भव है। व्यक्ति के आन्तरिक मनोवेग जिसे अन्तःकरण कहा जाता है, हमें नैतिक तौर पर राज्य के प्रति बाध्य बना देता है।" मिल ने कहा है कि अन्तःकरण अन्य लोगों के सुख में वद्धि तथा दूसरों के दुःखों का हास चाहता है। मिल ने ईसा मसीह का उदाहरण देकर बेन्थम के उपयोगितावाद को नैतिक आधार पर प्रदान करने का प्रयास किया है। इस प्रकार बेन्थम का अधिकतम लोगों के अधिकतम सुख का सिद्धान्त' मिल के दर्शन में नैतिक आधार में परिवर्तित हो गया है।
6. व्यक्ति की स्वतन्त्रता को महत्त्व :-
मिल ने बेन्थम के स्वतन्त्रता सिद्धान्त में भी संशोधन किया है। बेन्थम ने व्यक्ति की स्वतन्त्रता की तुलना में व्यक्ति के सुख को प्राथमिकता दी है। उसके अनुसार मनुष्य परतन्त्र होकर भी सुख को प्राप्त कर सकता है। परन्तु मिल ने स्वतन्त्रता को विशेष महत्त्व देते हुए इसे उपयोगिता के सिद्धान्त की अग्रगामिनी माना है। मिल के अनुसार स्वतन्त्रता का अपना विशेष महत्त्व है और यह स्वयं एक साध्य है। उपयोगिता की प्राप्ति के लिए यह साधन नहीं हो सकती। बेन्थम के विपरीत मिल ने स्वतन्त्रता के नैतिक महत्त्व को स्वीकार किया है। उसका कहना है कि इससे व्यक्ति का आत्मिक विकास होता है। मिल ने स्वतन्त्रता को व्यक्तिगत अधिकार के रूप में स्वीकार किया है। मिल के अनुसार स्वतन्त्रता उपयोगिता से बड़ी साध्य है।
7. मनुष्य के जीवन व राज्य का लक्ष्य :-
बेन्थम के अनुसार जीवन का अन्तिम लक्ष्य उपयोगिता है। उसके अनुसार मनुष्य का चरम लक्ष्य आत्मानुभूति न होकर सुख की प्राप्ति एवं दुःख का निवारण है। इसके विपरीत मिल के अनुसार जीवन का लक्ष्य अपने व्यक्तित्व को उत्कृष्ट बनाना है। उसका कहना है कि व्यक्ति को वही कार्य करना चाहिए जो उसके व्यक्तित्व को उत्कृष्ट बनाता हो। उसने अच्छे जीवन को सुखमय जीवन से श्रेष्ठ माना है। उसके अनुसार नैतिकता सुख से महान् है। उसने बेन्थम के उपयोगितावादी दर्शन में नैतिक सिद्धान्तों का समावेश करके महान् परिवर्तन ला दिया है। उसके अनुसार राज्य का उद्देश्य सुख की व द्धि करना न होकर व्यक्तियों के सद्गुणों का विकास करना है।
8. राज्य का आधार व कार्य :-
बेन्थम ने राज्य को व्यक्तिगत हित पर आधारित माना है। उसका मानना है कि राज्य की उत्पत्ति व्यक्तिगत हितों को पूरा करने के लिए होती है। लेकिन मिल ने राज्य को व्यक्तिगत हित की बजाय व्यक्ति की इच्छा पर आधारित माना है। उसके अनुसार इच्छा संख्या का नहीं बल्कि गुण का प्रतीक है। जो इच्छा राजनीतिक संस्थाओं का निर्माण करती है, वही आगे चलकर विश्वास का रूप लेती है। इसलिए जिस व्यक्ति का अपना विश्वास होता है, वह सामाजिक शक्ति में उन सैंकड़ों व्यक्तियों के बराबर होता है, जिनकी भावना व्यक्तिगत हित से लदी होती है। मिल ने कहा है कि व्यक्ति की इच्छा और उसके व्यक्तित्व के अभाव में राज्य पूर्णता को प्राप्त नहीं कर सकता। इसलिए व्यक्तिगत हित की अपेक्षा व्यक्ति की इच्छा ही राज्य का आधार होती है। इसी प्रकार बेन्थम के अनुसार राज्य के कार्य निषेधात्मक हैं जबकि मिल के अनुसार राज्य व्यक्ति के विकास मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर करता है तथा उसके जीवन को सुखमय बनाता है। बेन्थम का राज्य केवल अधिकतम सुख पाने में व्यक्तियों के रास्ते में आने वाली रुकावटों को ही दूर कर सकता था। लेकिन मिल ने चाहा है कि राज्य के कार्य सकारात्मक होने चाहिएं जो सार्वजनिक कल्याण के लिए जरूरी हैं। इस प्रकार मिल ने बेन्थम के राज्य के नकारात्मक कार्यों को सकारात्मक कार्यों में बदल दिया
9.आर्थिक क्षेत्र में राज्य हस्तक्षेप का समर्थन :-
वेन्थम ने व्यक्तियों को अधिकतम सुख प्राप्त करने के लिए उनको अधिक : आर्थिक स्वतन्त्रता प्रदान करने का समर्थन किया है। उसका मानना है कि इससे व्यक्ति की प्रसन्नता में वद्धि होगी और इसके परिणामस्वरूप सामाजिक प्रसन्नता में भी आनुपातिक व द्धि होगी। इस प्रकार बेन्थम ने अहस्तक्षेप की नीति समर्थन किया है। इसके विपरीत मिल का मानना है कि इससे सार्वजनिक कल्याण का मार्ग अवरुद्ध होता है। कारखानों तथा भूसम्पत्ति पर अमीर लोगों के एकाधिकार से बहुसंख्यकों के सर्वांगीण विकास में बाधा पहुँचती है। इसलिए व्यक्ति का आर्थिक क्षेत्र में एकाधिकार शोषण की प्रवत्ति को बढ़ावा देता है। इसलिए समाज में आर्थिक असमानता पाई जाती है। ऐसे समाज में राज्य का यह कर्त्तव्य बनता है कि वह सार्वजनिक कल्याण के लिए आर्थिक असमानता के दोषों को दूर करने के लिए कानून बनाए। इस प्रकार मिल के आर्थिक क्षेत्र में राज्य के हस्तक्षेप का पूर्ण समर्थन किया है।
10. समाज को महत्त्व :-
बेन्थम के अनुसार समाज एक कृत्रिम संस्था है। मिल के अनुसार समाज एक स्वाभाविक संस्था है। उसका विश्वास है कि स्वस्थ सामाजिक वातावरण में ही व्यक्तियों का सार्वजनिक कल्याण सम्भव है। उसके अनुसार नैतिकता का सामाजिक उद्देश्य होता है। इसी प्रकार समाज का भी आध्यात्मिक तथ्य होता है और वह है समाज के . समस्त लोगों का आध्यात्मिक कल्याण। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को सार्वजनिक सुख की कामना व उसकी प्राप्ति का प्रयास करना चाहिए।
11. मतदान प्रणाली :-
बेन्थम ने गुप्त मतदान प्रणाली का समर्थन किया है, जबकि मिल ने खुले मतदान का समर्थन किया है।
12. मताधिकार : -
वेन्थम ने सबको मताधिकार प्रदान करने की बात कही है। लेकिन मिल ने इसका खण्डन करते हुए शिक्षित, ज्ञानी, उत्तरदायी व बुद्धिमान लोगों को ही मताधिकार प्राप्त करने की बात कही है। उसका कहना है कि मतादाता इतना विवेकशील तो अवश्य होना चाहिए जो उचित व अनुचित में स्पष्ट भेद कर सके।
13. स्त्री- मताधिकार :-
बेन्थम ने इसका कहीं उल्लेख नहीं किया है, जबकि मिल ने स्त्री- मताधिकार का जोरदार समर्थन किया है।
14. प्रजातन्त्र पर विचार :-
बेन्थम ने प्रजातन्त्र को हर परिस्थिति में उपयुक्त माना है, जबकि मिल ने इसे केवल उस समाज में ही सफल माना है, जहाँ के व्यक्तियों का चरित्र उत्कृष्ट हो। उसने भिन्न-भिन्न समाजों के लिए अलग-अलग शासन प्रणालियों का समर्थन किया है।
इस प्रकार निष्कर्ष तौर पर कहा जा सकता है कि मिल ने बेन्थम के उपयोगितावाद में महत्त्वपूर्ण संशोधन किए हैं। लेकिन वह उपयोगितावाद की रक्षा करते समय इतनी दूर चला गया कि इससे बेन्थम का उपयोगितावाद ही लुप्त हो गया। उसने स्वयं को उपयोगितावाद का व्याख्याता बताकर किसी नवीन सिद्धान्त का संस्थापक होने के पद से वंचित कर लिया। इसलिए सेबाइन ने कहा है कि- "मिल की सामान्य स्थिति यह है कि उसने पुराने उपयोगितावादी सिद्धान्त का एक अत्यन्त अमूर्त वर्णन किया परन्तु सिद्धान्त को ऐसे समय शुरू किया कि अन्त में पुराना सिद्धान्त तो समाप्त हो गया, किन्तु उसके स्थान पर किसी नवीन सिद्धान्त की स्थापना नहीं हुई।" इस प्रकार हम कह सकते हैं कि मिल द्वारा बेन्थम के उपयोगितावाद में किए गए परिवर्तनों से जो नया सिद्धान्त उभरा है, वह उपयोगितावाद के स्थान पर एक अन्तर्वर्ती (Transitional) दर्शन है। उसके प्रयासों से इसमें उपयोगितावाद का अंश नाममात्र ही रह गया है। इसलिए मिल को अनेक आलोचनाओं का शिकार होना पड़ा है।