राजनीति का नैतिकता और धर्म से पथक्करण का सिद्धान्त (Theory of Separation of Politics from Morality and Religion)
मैकियावली की सबसे महत्त्वपूर्ण देन उनका राजनीति को धर्म व नैतिकता से अलग करने का सिद्धान्त है। यह सिद्धान्त मैकियावली को आधुनिक राजनीतिक चिन्तक के रूप में प्रतिष्ठित करता है। यदि हम राजदर्शन के इतिहास का अवलोकन करते हैं तो हम यह पाते हैं कि प्राचीन यूनान में और किसी भी दार्शनिक ने यह कार्य नहीं किया। महान् यूनानी विचारक प्लेटो राजनीति को नीतिशास्त्र का एक भाग मानते थे। उनके बाद अरस्तू ने इन दोनों में भेद करने का प्रयास किया और कहा कि राजनीतिशास्त्र का अध्ययन क्षेत्र राज्य हैं, जबकि नीतिशास्त्र का व्यक्ति का आचरण है। उन्होंने राजनीति और नीतिशास्त्र के ऊपर दो अलग-अलग ग्रन्थ लिखे। लेकिन फिर भी अरस्तू राजनीति और नीतिशास्त्र में पूर्णतः अन्तर नहीं कर सके। वे दोनों को एक सिक्के के दो पहलू मानते थे । इस तरह प्राचीन यूनानी राजनीतिक दर्शन नैतिकता पर आधारित था । इसी तरह मध्ययुग में राजनीतिक दर्शन धर्मशास्त्र पर आधारित था ।
मैकियावली को ही जाता है। उसने कहा कि नैतिकता और राजनीति अलग-अलग वस्तुएँ हैं जिनके अनुसंधान क्षेत्र भी अलग-अलग हैं। राजनीति राज्य के आचरण से तथा नीतिशास्त्र व्यक्ति के व्यवहार से सम्बन्धित है। व्यक्ति के सभी व्यावहारिक कार्यों के लिए राज्य है, जनता से ऊपर है। शासक समाज के सभी वर्गों के हितों का प्रतिनिधित्व करता है। अतः शासन एवं एक मामूली व्यक्ति के आचरण का मूल्यांकन करने की कसौटी भी भिन्न ही होगी। यह भेद राजनीतिक चिन्तन के लिए मैकियावली का एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण योगदान है।
व्यक्ति तथा शासक के आचरण के नियमों में इस भेद को एक अन्तिम छोर पर ही रहने दिया जा सकता है। शासक के आचरण के नियम उसकी प्रजा से अभिन्न होते हैं। यदि वह अपनी प्रजा के हितों को अपना हित नहीं मानता है तो वह सफलता नहीं पा सकेगा। राजा का मुख्य हित जनता का कल्याण है। राज्य में स्थायित्व और व्यवस्था कायम करने के लिए शासक से बढ़कर कोई नहीं है। राज्य के हित में सभी तरह का अत्याचार, विश्वासघात और पाश्विक व्यवहार न्यायसंगत होता है। यदि राज्य के हितों की रक्षा करना शासक का ध्येय है तो उसके लिए हत्या, कपट, हिंसा की छूट है। मैकियावली ने इटली की दुर्दशा को देखकर एक शक्तिशाली शासक की आवश्यकता महसूस की जो राज्य में विघटनकारी ताकतों से निपट सके। उसने देश की एकता में बाधक शक्तिशाली तत्त्व 'पोप की सर्वोच्चता' का खण्डन किया और अपनी पुस्तक The Prince' में शासक को अपने शासन को सुदढ़ बनाने के लिए महत्त्वपूर्ण उपदेश दिए। उन्होंने शासक को सभी अनैतिक साधनों का प्रयोग करने की छूट दी। उनके धर्म, नैतिकता व राजनीति के पृथक्करण का निम्न शीर्षकों के अन्तर्गत अध्ययन किया जा सकता है:-
1. राजनीति में साध्य ही साधन का औचित्य है (In Politics Ends Justify Means) : मैकियावली ने 'Discourses' में लिखा है- "मैं विश्वास करता हूँ कि जब राज्य का जीवन संकट में हो तो राजाओं और गणराज्यों की रक्षा के लिए विश्वासघात तथा कृतघ्नता का प्रदर्शन करना चाहिए। उसका स्पष्ट मत था कि सांसारिक सफलता ही सबसे बड़ा साध्य है, जिसे प्राप्त करने के लिए सभी अनैतिक साधन आवश्यक हैं। साध्य की सफलता साधन को औचित्यपूर्ण ठहरा सकती है। देश की सुरक्षा के लिए न्याय-अन्याय, दयापूर्ण क्रूर, लज्जास्पद सराहनीय का भेद छोड़ देना चाहिए। हमें वही कार्य करना चाहिए जो देश हित में हो और स्वतन्त्रता का संरक्षण किया जा सके। उसने स्पष्ट किया कि राजनीति की नैतिकता जीवन की नैतिकता नहीं हो सकती। यदि किसी की हत्या से समाज के सामान्य कल्याण में व द्धि होती हो तो वह उचित है। राज्य की सुरक्षा के लिए शासक अपने वचन का उल्लंघन कर सकता है। उसके अनुसार- "उन वचनों का, जिन्हें आप पर बलपूर्वक थोप दिया गया है, पालन न करने में कोई अपमान नहीं है और जो वचन बरबस देने पड़ते हैं और जो सार्वजनिक हित से सरोकार रखते हैं, यदि उनमें लागू करने की शक्ति नहीं है तो उन्हें तोड़ना ही उचित है। मैकियावली ने नैतिकता को व्यक्तिगत और जन नैतिकता में बाँटकर व्यक्तिगत में शासक के द ष्टिकोण और मापदण्ड को रखा। उसने जन- नैतिकता के बारे में कहा कि जनता का कल्याण इसी में है कि वह अपने शासक की आज्ञाओं का पालन करे। उसके अनुसार शासक स्वतन्त्र है, उस पर कोई बन्धन नहीं है और न ही वह नैतिकता के बन्धन में बँधा है। अपनी शक्ति और प्रभाव के विस्तार में जो कुछ उपयुक्त हो, वह न्यायपूर्ण और नैतिक है। वह राज्य को एकीकृत करने व शक्तिशाली बनाने के लिए प्रयुक्त होने वाले साधनों की नैतिकता पर कोई ध्यान न देकर केवल उद्देश्य पूर्ति को देखता है। उसके अनुसार "राजा को तो राज्य की सुरक्षा की चिन्ता रखनी चाहिए, साधन तो हमेशा आदरणीय ही माने जाएँगे और सामान्यतः उसकी प्रशंसा की जाएगी। राजा का काम आम खाना है गुठलियाँ गिनना नहीं। इसलिए उसका उद्देश्य यही होना चाहिए कि अपने काम में नैतिक या अनैतिक साधन का प्रयोग करके सफलता प्राप्त कर ली जाए।" राजसत्ता को बनाए रखने के लिए शासक दाम, साम, दण्ड, भेद, बेईमानी, हत्या, प्रवंचना, आडम्बर, छल-कपट आदि उपायों का प्रयोग कर सकता है। सही राजा वही है जो शेर की तरह ताकतवर और लोमड़ी की तरह चालाक हो साध्य की प्राप्ति हेतु नैतिकता के चक्कर में पड़ना मूर्खता है।
इस प्रकार मैकियावली का राजनीतिशास्त्र को नीति-विज्ञान से अलग करने के सिद्धान्त का सार यही है कि अच्छा कार्य वही है जो समाज कल्याण के हित में है और सिवाय उसके कोई कसौटी नहीं है। सार्वजनिक कल्याण में व द्धि के लिए अनैतिक कार्यों का समर्थन किया जा सकता है। अतः उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि साध्य प्राप्ति के लिए प्रयुक्त अनैतिक साधन भी उचित ठहराए जा सकते हैं यदि उनसे सार्वजनिक हित में वद्धि होती हो तो।
2. नैतिकता का दोहरा मानदण्ड (Double Standards of Morality) : मैकियावली ने व्यक्ति तथा राज्य के लिए अलग-अलग मानदण्डों की व्याख्या की है। यही सिद्धान्त उनकी आलोचना का प्रमुख कारण बना। उन्होंने अत्याचार, छल-कपट, हत्या या अन्य बुरे कार्यों की छूट दी है। इनके प्रयोग से राज्य हित को बढ़ाया जा सकता है। वह इस परिणाम पर पहुँचा है कि- “राजा राज्य को बनाए रखने के लिए और उसका कार्य सुचारू रूप से चलाने का उद्देश्य रखे, उसके साधन हमेशा सम्मानपूर्वक मने जाएँगे और उन्हें सार्वजनिक स्वीकृति भी प्राप्त हो जाएगी।" वे गणतन्त्र पर भी विचार करते हैं तब भी उनके निष्कर्ष वे ही हैं जो 'The Prince में थे। उनका कहना है- "मेरा विश्वास है कि जब राज्य के जीवन को भय है, तब उसे सुरक्षित रखने के लिए राजा तथा गणतन्त्रवादी दोनों ही विश्वास भंग करेंगे और कृतघ्नता प्रकट करेंगे।” नैतिकतावादी सभी कालों में उसकी आलोचना करते आए हैं। यदि उनके विचारो का सूक्ष्मतापूर्वक विश्लेषण करे तो यह विदित होगा कि वह न तो नैतिक थे और न अनैतिक पर सदाचार-निरपेक्ष थे। सेबाइन का विचार है- “परन्तु अधिकतर वे उतने अनैतिक नहीं हैं जितने कि सदाचार-निरपेक्ष। वे राजनीति को अन्य विचारों से अलग कर देते हैं और उसके विषय में ऐसा लिखते हैं मानो वे अपने आप में एक पूर्ण ध्येय हों।" उसी प्रकार डनिंग ने भी कहा है- “वे राजनीति में अनैतिक नहीं परन्तु सदाचार-निरपेक्ष है।" मैकियावली के कथन का सारांश यही है कि राज्य जो कुछ करता है, वह नैतिक दष्टि से ठीक नहीं हो सकता, क्योंकि व्यक्तियों के विपरीत वह नैतिक प्राणी नहीं है और जो कुछ वह करता है, वह गलत भी नहीं हो सकता। शासन कला के क्षेत्र में परिणाम ही कार्यों की कसौटी हैं। यदि परिणाम अच्छे हों तो कार्य बुरा नहीं होगा। इस प्रकार उनका नैतिकता का दोहरा मापदण्ड राजनीति को धर्म व नैतिकता से अलग करने का तीव्र प्रयास है। यहाँ उनका सिद्धान्त दोनों में पथक्करण स्पष्ट तौर पर दर्शाता है।
3. राजनीति और धर्म (Politics and Religion) : जो बात मैकियावली ने नैतिकता के लिए कही है वही बात धर्म के लिए भी कही है। धर्म अपने आप में अच्छी बात है यदि सभी लोग धार्मिक होते और राज्य के प्रति आस्थावान होते। धर्मभीरू प्रजा शासन संचालन के लिए बहुत अनुकूल होती है। इसलिए राज्य को चाहिए कि वह जनता को अपने प्रति आस्थावान बनाने के लिए धार्मिक बनाये। लेकिन मैकियावली ने मानवीय गुण के रूप में धर्म को मान्यता नहीं दी है। उसके विचारों यदि धर्म राज्य के मार्ग में बाधा बने तो उसे कुचल देना चाहिए। वह तभी तक उचित है जब तक वह राज्य का साधन बना रहता है। धर्म राज्य की अधीनता में है उससे ऊपर नहीं। धर्म के साथ खिलवाड़ करके राजा हमेशा प्रजा को अपने पक्ष में रख सकता है। उनका मानना है कि- “यदि राज्य की सुरक्षा को खतरा हो तो न्याय और अन्याय, दयालुता और निर्दयता पर विचार किये बिना धार्मिक मान्यताओं को रौंद देना ही उचित है।"
इस प्रकार उसने धर्म व राजनीति का पृथक्करण किया है। राजनीति का दायरा शक्ति है और धर्म का आध्यात्मिक । उसने राजनीति के क्षेत्र में धर्म को अनुचित माना है। उसने मध्ययुग से चली आ रही धर्म व राजनीति के गठबन्धन की परम्परा को तोड़कर धर्म और राजनीति का पथक्करण किया है। वह धर्म-विरोधी नहीं है और न ही नैतिकता विरोधी। इसी सन्दर्भ में डनिंग का कथन है- "मैकियावली अनैतिक नहीं, नैतिकता के प्रति उदासीन है, वह धर्म विरुद्ध नहीं, बल्कि धर्म के प्रति उदासीन है।"
मैकियावली ने राजनीति को धर्म व नैतिकता से अलग क्यों किया ?(Why did Machiavelli Separate Politics from Morality and Religion)
मैकियावली ने राजनीति को धर्म व नैतिकता से पृथक् करने के लिए निम्नलिखित तीन कारण बताए हैं :
1. वह यूनानी दार्शनिकों की तरह मनुष्य की रक्षा और कल्याण के लिए राज्य को अत्यावश्यक, सर्वोत्तम और सर्वोच्च संगठन मानते हुए राज्य के हित को व्यक्तिगत हितों से ऊपर मानता था। इसलिए उसने लिखा है “जब राज्य की सुरक्षा संकट में हो तो उस पर नैतिकता के वे नियम लागू नहीं होते जो नागरिकों के व्यवहार को विनियमित करते हैं।" उसने सार्वजनिक कल्याण व जनसुरक्षा के मुद्दे पर राजा को कायम रखने के लिए सभी अनैतिक साधनों द्वारा उनको पूरा करने की छूट प्रदान की है।
2. वह यथार्थवादी विचारक था। उस समय के ईसाइयत जीवन के स्वयं पोप के जीवन के पापमय आचरण को देखकर उसने निष्कर्ष निकाला कि धार्मिक सत्ता व्यक्ति को अकर्मण्य व अन्धविश्वासी बनाती है, जिसके कारण वे परिस्थितियों का सामना करने से घबराते हैं। अतः उनका यह सिद्धान्त बनाना स्वाभाविक था कि मनुष्य को दुर्बल बनाने वाली धार्मिक सत्ता का राजनीति में कोई स्थान न हो।
3. वह शक्ति को बहुत महत्त्व देता था। वह शक्तिशाली पुरुषों को ही वंदनीय समझता था। उसे भली-भाँति यह याद था कि किस प्रकार फ्रांस ने फलोरेंस पर कब्जा कर लिया था और पोप ने फलोरेंस में अपना धार्मिक प्रभुत्व कायम कर रखा था लेकिन वेनिस जैसा शक्तिशाली राज्य भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ पाया था, क्योंकि पोप को फ्रांस, ब्रिटेन आदि शक्तिशाली राष्ट्रों का समर्थन प्राप्त था। उसने शक्ति के महत्त्व को भली-भाँति पहचान लिया था। उसने राजा के लिए शक्ति का प्रयोग जनता को भयभीत करने को उचित ठहराया। मत्यु के बाद मोक्ष लाभ प्राप्त करना उतना ही आवश्यक था जितना उसके लिए इस लोक में ख्याति लाभ प्राप्त करना। इसलिए उसने राजनीति को धर्म व नैतिकता से अलग रखने का विचार अपनाया।
इसके अतिरिक्त उसने सीजर बोर्जिया के साथ रहकर यह भी सीखा कि किस प्रकार इस निरंकुश शासक ने अनैतिक साधनों का प्रयोग करके इटली के एक बड़े भाग में एक शक्तिशाली शासन की स्थापना की। उसके कूटनीतिक अनुभव ने भी राजनीति में धर्म व नैतिकता के सिद्धान्तों का महत्त्व स्वीकार न करने की बात सिद्ध की।
आलोचनाएँ (Criticisms)
मैकियावली का राजनीति को धर्म व नैतिकता से अलग करने का सिद्धान्त निम्न आधारों पर अमान्य प्रतीत होने लगा ओर आलोचनाओं का शिकार हुआ :
1. यह सिद्धान्त राजनीतिज्ञों द्वारा किए गए गलत कार्यों का समर्थन करता है। इसकी आड़ में इटली में भी शासक वर्ग द्वारा जनता और अपने विरोधियों पर अत्याचार किए गए। इटली को संगठित व एकीकृत करने के नाम पर किए गए नरसंहार सर्वविदित हैं। यह राजनीतिज्ञों की काली करतूतों को पुरस्कृत करता है।
2. मैकियावली ने साध्य को साधन की अपेक्षा ज्यादा महत्त्व दिया है। महात्मा गांधी का मानना है कि यदि साधन पवित्र है तो साध्य भी अच्छा ही होगा लेकिन मैकियावली ने इसके विपरीत साध्य को साधन का औचित्य बताया है। महात्मा गांधी ने कहा है कि "Means justify the Ends" अर्थात् "साधन ही साध्य का औचित्य है। "
3. यह सिद्धान्त सार्वजनिक हित के नाम पर राजा को व्यक्तिगत हितों को पूराकरने की खुली छूट देता है। उसका मानना है कि शासक व जनता के हित एक ही होते हैं। वास्तव में ऐसा नहीं होता। जनता व शासक के हित अलग-अलग होते हैं। यदि इनको एक ही मान लिया जाए तो शासक अपनी व्यक्तिगत सनकों तथा पूर्व धारणाओं को भी राज्य की नीतियों के नाम पर बढ़ावा दे सकता है।
4. उन्होंने धर्म व नीति की घोर उपेक्षा की है। उसने धर्म व नीति का महत्त्व न आंकने की भारी भूल की है। इसलिए डॉ. मूरे ने कहा है- "वे स्पष्टदर्शी थे पर दूरदर्शी नहीं। उन्होंने चालाकी को राजनीतिज्ञ की कला मान लेने की भूल की है। " वास्तव में धर्महीन राजनीति म त्यु के समान होती है। आधुनिक युग में नैतिक मूल्यों पर आधारित राजनीति की माँग जो पकड़ रही है।
उपर्युक्त त्रुटियों के बावजूद भी यह कहा जा सकता है कि मैकियावली का धर्म व नैतिकता को राजनीति से प थक् करने का विचार तत्कालीन परिस्थितियों की माँग था। उसने इटालियन समाज को अराजकता की स्थिति से निकालने के लिए तथा पोप की इटली समाज को मजबूत बनाने में बाधा के रूप में निवारण करने के लिए अपने इस सिद्धान्तका प्रतिपादन किया। उत्तरकालीन विचारक इस बात से सहमत हो गए कि व्यक्तियों तथा राज्य की नैतिकता एक ही नियमों में नहीं बँध सकती। मैकियावली के लिए इससे बढ़कर श्रद्धांजलि नहीं हो सकती कि आधुनिक युग में सभी राज्य अपने राजनयिक तथा राजनीतिक व्यवहार में उन्हीं के सिद्धान्तों पर चल रहे हैं। गांधी जी के विचार सैद्धान्तिक तौर पर ही सही हैं लेकिन व्यावहारिक पहलू से मैकियावली ही सही हैं। उनकी यह राजनीतिक चिन्तन के इतिहास में अमूल्य देन है ।