मैकियावली के शासन कला के बारे में विचार (Machiavelli's Ideas on the Art of Government)
राजदर्शन के इतिहास में मैकियावली एक विवादास्पद विचारक रहे हैं। उनके बारे में यह मन्तव्य दिया गया है कि मैकियावली ने शासन कला (Art of Govt. ) पर लिखा है, न कि राज्य के सिद्धान्त पर । मैकियावली को कई लेखक एक दार्शनिक की बजाए एक राजनीतिज्ञ तथा कूटनीतिज्ञ मानते हैं। यदि हम 'प्रिंस' की प्रस्तावना को पढ़ते हैं तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि मैकियावली न तो स्वयं दार्शनिक होने का दावा करता है और न ही एक दार्शनिक बनना चाहता था। वह मुख्य श्रूप से एक यथार्थवादी राजनीतिज्ञ थे। उन्होंने फलोरेन्स की राजनीति में सक्रिय भाग लिया था। उनका उद्देश्य इटली का एकीकरण करके एक शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में उसे प्रतिष्ठित करना था । इसलिए उनकी दो प्रमुख रचनाओं में राज्य के सैद्धान्तिक पहलू पर लिखने की अपेक्षा शासन कला पर A weलिखा गया।
अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ 'The Prince में उन्होंने शासन कला पर लिखा । इसमें उसने अपने कल्पित राजकुमार को शासन कला पर उपदेश दिए हैं। इसलिए उनके इस ग्रन्थ में प्रिंस के बारे में पड़कर यह लगता है कि यह राज्य सिद्धान्त पर नहीं बल्कि शासन कला पर लिखा गया सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ है। (A book on the Art of Government rather than on theTheory of State) । शायद यह ग्रन्थ राजा और राजकुमार के लिए लिखा गया ग्रन्थ है। उनका दूसरा प्रमुख ग्रन्थ 'Discourses' भी मुख्य रूप से शासन कला से ही सम्बन्धित है। अन्तर केवल इतना है कि इसमें मैकियावली ने गणतन्त्रीय सरकार (Republic Govt. ) पर लिखा है।
उपर्युक्त मन्तव्यों से हमें यह निष्कर्ष नहीं निकाल लेना चाहिए कि मैकियावली केवल शासन कला के बारे में ही लिखा है और राज्य के बारे में कोई विचार प्रस्तुत नहीं किया है। यदि ऐसा होता तो मैकियावली को राजदर्शन के इतिहास में इतना प्रतिष्ठि स्थान प्राप्त नहीं होता और उसे प्रथम आधुनिक राजनीतिक दार्शनिक नहीं कहा जाता। वास्तविकता तो यह है कि मैकियावली ने नियोजित व क्रमबद्ध (Planned Systematic) तरीके से राज्य के बारे में कोई सिद्धान्त प्रतिपादित नहीं किया, फिर भी राज्य के बारे में उनके विचार बहुत महत्त्वपूर्ण हैं, ये विचार पहले उनके भाषणों और लेखों में बिखरे पड़े थे। उनके परवर्ती लेखकों और अनुयायियों ने इन बिखरे हुए विचारों को एकत्रित किया और राज्य के सिद्धान्त के रूप में प्रस्तुत किया।
राज्य पर विचार (Views on State)
मैकियावली ने राज्य को एक सर्वोच्च संस्था माना है। उसके राज्य सम्बन्धी विचारों को निम्नलिखित तरीके से समझा जा सकता है :-
राज्य की उत्पत्ति और प्रकृति (Origin and Nature of State)
यद्यपि मैकियावली ने राज्य की उत्पत्ति का कोई सिद्धान्त प्रस्तुत नहीं किया है तथापि उसकी मान्यताओं के अनुसार राज्य मनुष्य के अवांछित आचरणों और स्वार्थी प्रकृति का परिणाम है। वह राज्य को अरस्तू की तरह प्राकृतिक संस्था न मानकर एक मानवकृत संस्था मानता है जो मनुष्य की आवश्यकता का परिणाम है। उसके अनुसार शक्ति की चाह और स्वार्थी प्रवत्ति राज्य को जन्म देती है। एतएव राज्य को अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए इस इच्छाऔर प्रव त्ति का हमेशा पोषण करते रहना चाहिए। राज्य अन्य सभी संस्थाओं से श्रेष्ठ है और सभी अन्य संगठन उसके अधीन ही रहने चाहिएं। यद्यपि मैकियावली ने सम्प्रभुता के सिद्धान्त का प्रतिपादन नहीं किया परन्तु उसका राज्य की शक्ति का निरूपण करने का तरीका राज्य में सम्प्रभु शक्ति को निहित मानता है। जिसका प्रयोग राजा (राजतन्त्र में) या प्रजा ( गणतन्त्र में) करती है। वह राज्य को लोककल्याण में वद्धि का साधन मानता है। उसने राज्य की उत्पत्ति का आधार मनुष्य की दुष्टता और स्वार्थपरता को बताकर राज्य को अपरिहार्य संस्था बना दिया। उसने स्वीकार किया कि सर्वोत्तम कल्याण का साधन मनुष्य के लिए राज्य के अतिरिक्त कोई नहीं हो सकता। उसने कहा कि स्वस्थ राज्य वह है जो विस्तार के द्वारा तथा जनता के प्रति अपने कार्यों द्वारा हमेशा गतिशील रहता है। यदि यह गतिशीलता समाप्त हो जाए तो राज्य का भी अन्तहो जाता है। वह राज्य के उत्थान और पतन का एक लम्बा इतिहास मानता है। वह राज्य को एकता का प्रतीक मानता है। वह सामान्य हित और सार्वजनिक कल्याण की भावना के संयुक्तिकरण को राज्य की उत्पत्ति का आधार बताता है। वह परिवर्तन को राज्य के विकास का आधार मानता है।
राज्य का विस्तार (Expansion of State)
मैकियावली यह मानता है कि राज्य परिवर्तनशील है और उसके उत्थान एवं पतनका एक लम्बा इतिहास है। इस परिवर्तन का अपना निश्चित क्रम है। वह राज्य को स्वस्थ व अस्वस्थ दो भागों में बाँटकर स्वस्थ राज्य का समर्थन करता है। जो सदैव संघर्ष में लगा रहता है। वह अस्वस्थ राज्य का विरोध करता है क्योंकि इसके निवासी छोटे-छोटे स्वार्थो के लिए परस्पर संघर्षरत रहते हैं। वह रोम साम्राज्य के पतन का कारण उसकी यथास्थिति को बनाए रखना बताता है। रोमन शासकों ने उसके विस्तार का प्रयास नहीं किया। वह 'प्रिन्स' तथा 'डिसकोर्सेज' में राज्य के अधिकृत प्रदेश को निरन्तर बढ़ाते रहने की आवश्यकता पर जोर देता है। उसके सामने इटली के एकीकरण का लक्ष्य था, इसलिए उसने राज्य के विस्तार के बारे में ऐसे विचार प्रस्तुत किये।
मैकियावली के मतानुसार राज्य में क्रमशः प्रसरणशील होना चाहिए और अपनी सीमा रेखा बढ़ाकर दूसरे राज्यों को आत्मसात् करना चाहिए। इसके लिए साम, दाम, दण्ड, भेद की कूटनीतिक नीतियों का पालन करना चाहिए। यदि राज्य अपना विस्तार नहीं करेगा तो वह अवश्य ही पतन की ओर जाएगा। उसकी राज्य विस्तार की धारणा प्लेटो से विपरीत है। फोस्टर के शब्दों में "प्लेटो के लिए राज्य विस्तार की भावना जहाँ राज्य के रोग का लक्षण है, वहाँ मैकियावली के लिए राज्य का विस्तार राज्य के स्वास्थ्य का लक्षण है।
राज्यों का वर्गीकरण (Classification of States)
मैकियावली ने अरस्तू की तरह राज्य के 6 प्रकार बताये हैं। उसके अनुसार राजतन्त्र, वर्गतन्त्र और संवैधानिक जनतन्त्र राज्य के सही रूप हैं। निरंकुशतन्त्र, धनिकतन्त्र और जनतन्त्र भ्रष्ट रूप हैं। मैकियावली ने राज्य और सरकार के मध्य कोई अन्तर नहीं माना है। इसलिए इन्हें सरकार का स्वरूप भी माना जा सकता है। उसने राजतन्त्र और संवैधानिक जनतन्त्र या गणतन्त्र को सबसे श्रेष्ठ माना है। उसनेइनके मिश्रित रूप का समर्थन किया है। उसके मिश्रित राज्य में राजतन्त्र और गणतन्त्र दोनों के गुण थे। वह एक ऐसे राजतन्त्र का समर्थक था, जिसका राजा जनता द्वारा चुना गया हो। उसने मिश्रित शासन प्रणाली को सर्वश्रेष्ठ बताकर उसका समर्थन किया। उसने 'Prince' में राजतन्त्र का तथा 'Discourses' में गणतन्त्रीय व्यवस्था का समर्थन किया है। उसने शासन के अन्य रूपों का घेर विरोध किया है।
कानून के शासन का महत्त्व (Importance of Rule of Law)
मैकियावली विधि के शासन को बहुत महत्त्व देता है, लेकिन उसके विचार कानून के शासन के बारे में अत्यन्त संकुचित हैं। वह विधि को शासक के प्रभाव का माध्यम मानता है। वह नागरिक विधि की कल्पना करता है जो शासक द्वारा बनाई जाती है। इटली में उस समय विधियाँ न होने से पूर्ण अराजकता का माहौल था। यद्यपि उसने विधि का कहीं स्पष्ट उल्लेख नहीं किया फिर भी शासक को सर्वोच्च शक्ति में उसकी कल्पना निहित है। कानून या विधि के शासन का प्रमुख उद्देश्य समन्वय व समानता कायम करना है। वह कानून के शासन को सर्वश्रेष्ठ और सर्वोच्च मानता है। सारी विधियाँ शासन द्वारा राज्य राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक परम्पराओं के अनुरूप पारित की जाती हैं। उसके अनुसार राज्य की स्थापना से पहले विधि के शासन का अभाव था। कानून का शासन स्थापित होने पर ही अराजक व्यवस्था का अन्त हुआ और समाज की एकता के सूत्र में बाँधा गया। राज्य का संरक्षण विधि की श्रेष्ठता पर ही आधारित होता है और स्थायी शासन की अनिवार्य शर्त कानून का शासन है। कानून के शासन का निर्माण करने के लिए एक सर्वशक्तिशाली विधि निर्माता की भी आवश्यकता होती है जो कानून के शासन की स्थापना द्वारा समाज में स्थायी शांति व समानता का गुण पैदा करता है। अतः कानून का शासन राज्य व इसके बिखरे हुए अंगों के मध्य सामंजस्य और समन्वय की स्थापना करता है।
सम्प्रभुता पर विचार (Views on Sovereignty)
यद्यपि मैकियावली ने इस अवधारणा का कहीं स्पष्ट रूप से उल्लेख नहीं किया है किन्तु उसने राजा की शक्तियों के बारे में जो कुछ भी लिखा है हमें उससे सम्प्रभुता का आभास होता है। वह शासक की आन्तरिक इच्छा तथा विजेता की भावना को अविभाज्य मानता है। उसके अनुसार शासक किसी भी आन्तरिक या बाह्य शक्ति के प्रति उत्तरदायी नहीं होता और न ही वह अपने कार्यों के लिए कर्त्तव्यबद्ध है। वह स्वयं परिवर्तनवादी था इसलिए उसने स्थायी या अखण्ड प्रभुसत्ता क बात नहीं की। वह सम्प्रभुता की विशेषताओं जैसे सम्प्रभुश्ता की शाश्वता, अदेयता, संवैधानिकता आदि पर कुछ नहीं लिखा। उसकी सम्प्रभुता एकात्मक, लौकिक, धर्मनिरपेक्ष और स्वतन्त्र चेतना से युक्त है। वह अन्तरराष्ट्रीय मामलों में सीमित सम्प्रभुता को स्वीकार करता है। अतः उसके सम्प्रभुता पर विचार परोक्ष है।
मैकियावली के राज्य के बारे में इन महत्त्वपूर्ण विचारों के बारे में कुछ आलोचनाएँ भी हुई। अनेक विचारकों ने राज्य को कृत्रिम संस्था न मानकर एक स्वाभाविक माना है। उनका मानव स्वभाव का चित्रण एकांगी है और उसके विचारों का कोई वैज्ञानिक आधार भी नहीं है। उसकी राज्य सम्बन्धी धारणा साम्राज्यवाद की पोषक है और जो पाशविक शक्ति पर आधारित है। आधुनिक प्रजातन्त्र के युग में तो उनका कोई महत्त्व नहीं है। उसने कभी भी प्लेटो, अरस्तू, हॉब्स की तरह नियोजित और क्रमबद्ध (Planned and Systematic) सिद्धान्त प्रतिपादित नहीं किया। फिर भी उसके राज्य सम्बन्धी विचार शासन कला के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारी देते हैं। उसका पहला ग्रन्थ 'The Prince' इटली की तत्कालीन परिस्थितियों के सन्दर्भ में शासन कला पर लिखा गया ग्रन्थ है। वह इसमें शासन की कला और राज्य के हितों की रक्षा के लिए शासक को कुछ उपदेश देता है।
मैकियावली के राजकुमार को उपदेश (Machiavelli's Tips to Prince)
मैकियावली ने The Prince' में राजकुमार या शासक को शासन कला के बारे में जो उपदेश या सुझाव दिए हैं, वे निम्नलिखित
1. शासक का रूप उदार होना चाहिए तथा उसे अपने व्यक्तिगत आचरण को इस प्रकार ढालना चाहिए कि जनता के समक्ष दया, धार्मिकता तथा शुभचिन्तकता आदि गुणों से उदार रूप प्रकट हो परन्तु उसका मन इतना अनुशासित होना चाहिए कि आवश्यकतानुसार इन गुणों के प्रतिकूल भी आचरण करने में समर्थ हो सके।
2. मैकियावली भय तथा शक्ति को राज्य निर्माण के लिए महत्त्वपूर्ण मानते हुए भी राज्य के अस्तित्व के लिए विधि के शासन पर बल देता है। वह पदाधिकारियों की शक्ति का दुरुपयोग रोकने के लिए वैधानिक उपचारों की व्यवस्था होने को जरूरी मानता है। उसका दर्शन मानव द्वेषी होते हुए भी उदार और वैधानिक शासन के इस पहलू के कारण हेरिंगटन जैसे संविधानवादियों की प्रशंसा का पात्र रहा है।
3. वह शासक के लिए राज्य की स्थापित संस्थाओं और परम्पराओं का सम्मान करना आवश्यक मानता है। यदि इन संस्थाओं और परम्पराओं से राज्य की सुरक्षा को खतरा हो तो उस दशा में उसमें परिवनन किया जा सकता है।
4. किसी भी सफल शासक को देशभक्तों, नागरिकों और सेनाओं का सहयोग लेना आवश्यक है। किराए की सेनाएँ शासक का अपमान कराती हैं। प्रिंस में उसने लिखा है- "ये असंगठित, इच्छुक, अनुशासनहीन, अकृत, मित्रों में बहादुर परन्तु शत्रुओं में बुजदिल होते हैं। उन्हें ईश्वर से कोई भय नहीं होता और ये विश्वासपात्र नहीं होते।" वह कहता है- "दूसरों के अस्त्र या तो असफल होते हैं या अतिभार डालते हैं या बाधा पैदा करते हैं।" वह कहता है कि दूसरों के सैनिकों के साथ जीतने की अपेक्षा अपने सैनिकों के साथ हारना अच्छा है।
5. एक सफल शासक के लिए अवसरवादी होना अनिवार्य है। शासक को कोई धर्मसंकट नहीं होना चाहिए। उसका कोई स्थायी मित्र या शत्रु नहीं होता। यदि उसका अपने मित्र के हितों से टकराव हो तो उसे अपने मित्र को शत्रु घोषित करने में देर नहीं करनी चाहिए।
6. राज्य का अस्तित्व बनाए रखने के लिए शासक को व्याघ्र लोमड़ी नीति का पालन करना चाहिए। शासक को अपने विरुद्ध रचे गए षड्यन्त्रों को असफल बनाने तथा अपने विरोधियों का अन्त करने के लिए शेर की तरह निर्दयी तथा लोमड़ी की तरह चालाकी का प्रयोग करना चाहिए। मैकियावली के शब्दों में- “जालों (षड्यन्त्रों) को मापने के लिए नरेश को लोमड़ी और भेड़ियों को भयभीत रखने के लिए शेर होना चाहिए।"
7. मन्त्रियों के चयन में शासक को अत्यधिक सतर्कता का परिचय देना चाहिए क्योंकि उनकी योग्यता, अच्छाई और वफादारी ही शासक की योग्यता और कुशलता का प्रथम परिचय है। यदि मन्त्री लोभी और स्वार्थी हैं तो वे शासक के प्रति कभी वफादार नहीं रह सकते।
8. शासक को पाखण्डी होना चाहिए। उसे बहुरूपिया और दिखावटी भी होना चाहिए। देखने में वह कृपालु, दयालु, सत्यप्रिय और धार्मिक होना चाहिए परन्तु आवश्यकतानुसार इन गुणों के विपरीत कार्य करने की योग्यता व क्षमता भी होनी चाहिए। " शासक को लोगों की धार्मिकता, नैतिकता और भोलेपन का पूरा लाभ उठाना चाहिए। "
9. शासक को युद्ध में जीते गए राज्य की प्रजा के विश्वास तथा मित्रता प्राप्त करने के लिए आवश्यक है कि वह विजित राज्य के कानूनों, प्रथाओं, रीति-रिवाजों एवं धार्मिक रीति-रिवाजों में कोई परिवर्तन न करे और जनता के प्रति सद्व्यवहार एवं मित्रता की नीति का पालन करे।
10. एक अच्छे राजा को मितव्ययी होना चाहिए। राज्य के धन को भोग-विलास में खर्च नहीं करना चाहिए, परन्तु लड़ाई में लूट का माल चुपचाप अपने कोष में न रखकर उदारतापूर्वक प्रजा और सैनिकों में बाँटना चाहिए।
11. शासक को चापलूसों से सावधान रहना चाहिए। शासक को योग्य और विश्वासपात्र मन्त्रियों से ही सलाह लेनी चाहिए। उसके अनुसार- "परामर्श शासक की बुद्धिमत्ता का परिणाम होना चाहिए न कि शासक की बुद्धिमत्ता परामर्श का परिणाम हो । "
12. राज्य के कार्यों के संचालन तथा योजनाएँ आदि बनाने में परम गोपनीयता का पालन करना चाहिए। मैकियावली के अनुसार लोग उन सभी योजनाओं का जो राज्य के हित में हे, अनुमोदन करेंगे यदि उनको पर्याप्त व्यवहार कौशल तथा गोपनीयता से लागू किया जाए।
13. मैकियावली के अनुसार जनता के साथ समानता का व्यवहार तो होना चाहिए परन्तु आवश्यकतानुसार भेद की नीति को भी अपनाया जा सकता है। इसी प्रकार शत्रुओं को कड़े दण्ड देने चाहिए परन्तु यदि आवश्यकता पड़े तो धन का लालच देकर लोगों को नियन्त्रण में रखने का प्रयास किया जा सकता है। अतः शासक को साम, दाम, दण्ड, भेद की नीति का आवश्यकतानुसार प्रयोग करना चाहिए।
14. व्यापार, वाणिज्य का प्रोत्साहन देश की समद्धि व उन्नति के लिए लाभदायक सिद्ध होता है। अतः राजा को इस ओर ध्यान देना चाहिए। यदि राजा वाणिज्य व्यवसाय, कृषि आदि की उपेक्षा करेगा तो देश निर्धन और अशक्त हो जाएगा।
15. मैकियावली का विचार है कि शासक को कला और साहित्य में रुचि लेनी चाहिए तथा साहित्य का संरक्षण तथा कलाकारों का सम्मान करने के गुण होने चाहिए।
16. मैकियावली का विचार है कि शासक को अपने राज्य की जनसंख्या में व द्धि होने देनी चाहिए ताकि राज्य के लिए प्रचुर मात्रा में सैनिक उपलब्ध हों। वह राज्य के उत्थान व विस्तार के लिए मानव-शक्ति को विशेष महत्त्व देता है।
17. शासक को गम्भीर परिस्थितियों में निस्संकोच निर्णय लेना चाहिए। अतः उसमें द ढ़ निश्चय की क्षमता व योग्यता होनी चाहिए। शासक को साहसी, सहनशील और शानो-शौकत वाला होना चाहिए। लोग तभी शासक से घ णा करते हैं जब वह दुर्बल, बुज़दिल तथा अनिश्चित होता है।
18. शासक में ऐसे गुणों का समावेश होना चाहिए कि लोग उससे भय खाएं घ णा नहीं करें। शासक को अपना यश बनाए रखने के लिए हर प्रयास करना चाहिए। जिस प्रकार शस्त्रों की शक्ति से बाह्य आक्रमणों से रक्षा की जा सकती है, उसी प्रकार शासक के यश तथा जन-सद्भावना से शासक आन्तरिक षड्यन्त्रों से सुरक्षित रहता है। शासक को जनता की सम्पत्ति तथा नारी जाति का सम्मान करना चाहिए।
19. मैकियावली राजा को अन्तरराष्ट्रीय क्षेत्र में शक्ति संतुलन बनाए रखने की ओर बल देता है। उसे पड़ोसी राज्यों के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप की नीति को अपनाना चाहिए तथा शक्ति व लालच द्वारा अपना मित्र बनाना का प्रयास करना चाहिए। साथ पड़ोसी राज्यों को आपसी सन्धि में नहीं बँधने देना चाहिए।
20. शासक को लोगों को राजनीतिक शिक्षा देने का प्रयास करना चाहिए तथा उन्हें राज्य के कार्यों में भाग लेने का मौका नहीं देना चाहिए। उसका मानना है कि व्यक्ति और राज्य के हित एक ही हैं। उसका निरंकुश राज्य स्वयं के लाभ के लिए न होकर सार्वजनिक हित के लिए है।
उपर्युक्त विवरण के आधार पर यह कहा जा सकता है कि वह एक यथार्थवादी दार्शनिक न होकर विचारक था। उसने शासन कला पर जो कुछ लिखा वह आज की शासन प्रणालियों में सर्वत्र देखने को मिलता है।
इसी तरह उनका दूसरा ग्रन्थ 'डिसकोर्सेज' (Discourses) भी गणतांत्रिक व्यवस्था में शासन कला के बारे में बताता है। मैकियावली के बारे में यह कहा जाता है कि उसने सरकार के दो सिद्धान्तों का वर्णन किया है एक सिद्धान्त उन राज्यों के लिए जहाँ शान्ति और व्यवस्था है और दूसरा उनके लिए जहाँ अराजकता या भ्रष्टाचार है। अपनी प्रवत्ति से वह राजतन्त्र की अपेक्षा गणतन्त्रवादी अधिक था। उसका विचार था कि ऐसे राजनीतिक समुदाय के लिए जहाँ सामान्य आर्थिक समानता हो, गणतन्त्रीय सरकार सर्वाधिक उपयुक्त नहीं बल्कि एकमात्र उपयुक्त सरकार है। एक भावुक राजा की तुलना में एक गणतन्त्र सरकार अच्छी तरह से अपनी संस्थाओं और परम्पराओं को बनाये रख सकती है और बदलती हुई परिस्थितियों के अनुसार उनमें परिवर्तन कर सकती है। यह सरकार भौतिक सम द्धि और अधिक समानता सुनिश्चित कर सकती है। क्रांति द्वारा किसी नए राज्य की स्थापना अथवा किसी भ्रष्ट राज्य में सुधार करने के लिए निरंकुश शासन लोकतन्त्र से अधिक प्रभावी है। अतः उसके अनुसार क्रान्तिकाल में निरंकुश शासन और शान्तिपूर्ण व्यवस्थित राज्यों के लिए लोकप्रिय सरकार उपयुक्त होती है।
'Discourses' में मैकियावली ने गणतन्त्रीय व्यवस्था के कुछ गुण बताए हैं-
1. गणतन्त्र में सभी लोगों को शासन में भाग लेने का अधिकार प्राप्त होता है।
2. इसमें निर्णय एक व्यक्ति की बजाय कई व्यक्ति मिल-जुलकर लेते हैं, जिसके कारण निर्णय अधिक परिपक्व और बेहतर होते हैं।
3. गणतन्त्र का समर्थन करते हुए मैकियावली कहता है कि इसमें विधि के शासन का महत्त्व होता है।
गणतन्त्र के गुणों के साथ-साथ उसके दोषों को भी मैकियावली भली-भाँति परिचित था। उसने उन दोषों के साथ-साथ उनके निवारण के उपाय भी बताए हैं :-
1. गणतन्त्र में संकटकालीन परिस्थिति का मुकाबला करने की क्षमता नहीं होती।
इस दोष से निपटने के लिए यह गणतन्त्र में एक शक्तिशाली शासक के शासन का होना अनिवार्य मानता है।
2. दूसरा दोष यह है कि गणतन्त्र में अधिकारी अन्याय और भ्रष्ट होते हैं, क्योंकि उन पर किसी एक का नियन्त्रण नहीं होता। इस दोष को दूर करने के लिए वह कठोर दण्ड की व्यवस्था का सुझाव देता है।
3. तीसरा दोष गणतन्त्र में दलबन्दी का है।
इसको दूर करने के लिए प्रत्येक दल को अपने विचार रखने की स्वतन्त्रता प्राप्त होनी चाहिए। मैकियावली का यह भी सुझाव है कि राज्य में संविधान और कानून लचीला होना चाहिए और सामाजिक परम्पराओं के अनुकूल होने चाहिएं। जहाँ तक हो सके राज्य में एक ही धर्म और संस्कृति के लोग होने चाहिएं।
इस तरह मैकियावली ने मुख्य रूप में अपने दोनों ग्रन्थों में शासन कला पर लिखा है। उसकी यह राजदर्शन को एक महत्त्वपूर्ण देन है। यह कहना उचित नहीं होगा कि वह केवल राजनीतिज्ञ या दार्शनिक नहीं । यद्यपि व कोई क्रमबद्ध सिद्धान्त नहीं दे सका फिर भी उसके राज्य व शासन पर विचार बहुत महत्त्वपूर्ण हैं।