मानव प्रकृति की अवधारणा (Conception of Human Nature)
मानव प्रकृति की अवधारणा हॉब्स के सम्पूर्ण राजनीतिक चिन्तन का आधार है। हॉब्स ने अपने सभी सिद्धान्त मानव स्वभाव के आधार पर ही विकसित किये हैं। हॉब्स के लिए ब्रह्माण्ड एक यन्त्र है यह यन्त्र उन पुर्जों से बना है जो यान्त्रिक नियम के अनुसार चलते हैं। यही संचालन विश्व का सिद्धान्त है। मानव ब्रह्माण्ड का एक छोटा सा नमूना है। हॉब्स उस नियम की खोज करता है जिससे मानव स्वभाव संचालित होता है। हॉब्स मानव मस्तिष्क को निरन्तर परिष्कृत होने वाला पदार्थ मानता है। मनुष्य एक चैतन्य प्राणी है। उसके मस्तिष्क में कुछ ऐसा नहीं हो सकता जिसकी अनुभूति न हुई हो। हॉब्स ने मानव स्वभाव का वास्तविक ज्ञान प्राप्त करने के लिए गैलिलियो के पदार्थ एवं गति के नियमों तथा विलियम हार्वे की रक्त संचार सम्बन्धी धारणा को मिश्रित कर मानव प्रकृति की व्याख्या की है। मानव पर बाह्य पदार्थों एवं पिंडो का प्रभाव, उनकी गतियों का प्रभाव ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से पड़ता है। यही गतियाँ हृदय तक पहुँच कर संवेदना का रूप ले लेती हैं। मानव हृदय गतिवान है। जब बाह्य गतियाँ मानव हृदय से मेल खाती हैं तो उस पदार्थ के प्रति मनुष्य में आकर्षण पैदा होता है और जब ये गतियाँ मेल नहीं खातीं, तो उस पदार्थ के प्रति मनुष्य में अरुचि और विरोध उत्पन्न होता है। इस प्रकार मनुष्य में सुख व दुःख दो प्रकार. की अभिरुचियाँ पैदा होती हैं। वास्तविक सुख या दुःख की अनुभूति के कारण होने वाली अभिरुचि अथवा रुचि ही मौलिक इच्छा होती है। कुछ रुचि या अभिरुचियाँ मनुष्य मे जन्मजात होती हैं तथा शेष बाद में उपलब्ध हो जाती हैं। वह अपनी रुचि की वस्तुओं को प्राप्त करना चाहता है और अरुचिकर को छोड़ना चाहता है। मानव हृदय की इस विशिष्ट गति को जीवन जीने की तीव्र अभिलाषा कहा जाता है। हॉब्स ने इसे मानव की प्रकृति का केन्द्रीय तत्त्व और लक्षण माना है। हॉब्स ने इसे सिद्ध करने के लिए मनोविज्ञान का सहारा लिया है। हॉब्स का पुस्तक 'लेवियाथन' से पूर्व 'डी कॉरपोरे पोलिटिको' (De Corpare Politico) में मनुष्य की प्रकृति का वर्णन मिलता है।
हॉब्स ने अपने दर्शन के अनुसार मानव की प्रकृति और स्वभाव के बारे में निम्नलिखित निष्कर्ष प्रस्तुत किये हैं:-
1. असुरक्षा की भावना (Feeling of Insecurity ) : प्रत्येक मनुष्य जीने की इच्छा रखता है। मनुष्य प्रत्येक परिस्थिति में अपने जीवन की रक्षा चाहता है। वह आत्मरक्षा के लिए कुछ भी करने को तैयार रहता है। उसमें आत्मरक्षा की भावना सदैव बलवान होती है और उसका सम्पूर्ण व्यवहार आत्मरक्षा के सिद्धान्तसे निर्देशित होता है ।
2. भय (Fear) : प्रत्येक मनुष्य चिन्तित रहता है। यह चिंता उसमें आत्मरक्षा की भावना के कारण उत्पन्न होती है। इससे भय का जन्म होता है। भय से अविश्वास की भावना पैदा होती है। दुर्बल व्यक्ति भी समूह बनाकर शक्तिशाली का अन्त कर सकते हैं।
3. स्वार्थ की भावना (Feeling of Selfishness) : मनुष्य एक स्वार्थी प्राणी है। स्वार्थ की प्रबल भावना ही उसके समस्त क्रिया-कलापों का आधार होती है। वह सदैव स्वार्थ सिद्धि में लगा रहता है। यदि कोई उसकी स्वार्थ सिद्धि में बाधा बनता है तो वह उस पर राक्षस की तरह हमला बोल देता है और उसके विनाश का प्रयास करता है।
4. अतृप्त इच्छाएँ / अभिलाषाएँ (Unsatisfied Desires ) : हॉब्स के अनुसार मनुष्य अपनी अभिलाषाओं की पूर्ति के लिए हमेशा बेचैन और क्रियाशील रहता है। प्रत्येक मनुष्य में अत प्त इच्छाएँ होती हैं। इनका अन्त मनुष्य के स्वयं के अन्त के साथ ही होता है। मनुष्य सदैव शक्ति प्राप्त करने की प्रबल अभिलाषा रखता है। जब मनुष्य इस अभिलाषा का दास बन जाता है तो वह इस इच्छा पूर्ति के रास्ते में बाधक सभी व्यक्तियों को कुचलना चाहता है। लेकिन उसकी यह इच्छा कभी पूरी नहीं होती। वह सदैव अत प्त ही बना रहता है।
5. अहम्भाव (Ego): हॉब्स के अनुसार मनुष्य में अहम्भाव प्रबलता होती है। सारे संवेग और आवेग इसी भाव से पनपते हैं और निर्देशित होते हैं। यही भाव मानव व्यवहार का आधार होता है। हॉब्स ने कहा है कि मानव स्वार्थ की भावना के कारण अहम्वादी और घमण्डी होता है। मनुष्य कभी दूसरों पर यह विश्वास नहीं करता कि वे उससे अधिक बुद्धिमान हैं। वह सदैव अपने को अधिक गुणवान समझता है। इसी भावना के कारण वह अपने को शक्तिशाली समझने लगता है और अहम्वादी बन जाता है।
6. इच्छा और अनिच्छा (Desire and Aversion) : हॉब्स के अनुसार मानव स्वभाव में दो विरोधी तत्त्व पाए जाते हैं - आकर्षण और विकर्षण। मनुष्य का स्वभाव है कि जो पदार्थ आकर्षक होता है। वह प्रिय लगता है और जो पदार्थ विकर्षक होता है, उससे घणा होती है। किसी वस्तु को प्राप्त करने पर उसे प्रसन्नता, आशा और उल्लास की प्राप्ति होती है। जबकि किसी दूसरे पदार्थ को प्राप्त करने पर उसे दुःख, निराशा और विषाद मिलता है। इस प्रकार मनुष्य के सभी कार्यों और प्रयासों के मूल में विरोधी तत्त्व जैसे सुख और दुःख, आशा और निराशा, साहस और भय विद्यमान रहते हैं।
7. दुःख-सुख (Pain and Pleasure) : हॉब्स का मानना है कि मनुष्य सुख की इच्छा और दुःख से बचने के लिए उपाय करता है। उसका आचरण सुख और दुःख के सिद्धान्त पर आधारित होता है। हॉब्स को इसी सिद्धान्त के कारण उपयोगिता दर्शन का प्रथम प्रस्तुतकर्ता माना जाता है।
8. समानता (Equality) : हॉब्स सभी मनुष्यों को समान मानता है। उसका मत है कि मनुष्यों की शारीरिक और मानसिक योग्यता में काफी समानता होती है। सभी मनुष्यों की मूल प्रव त्ति आत्म-रक्षण है और वे इसे केन्द्र बनाकर अपनी प्रतिक्रिया करते हैं। शारीरिक रूप से कमजोर व्यक्ति छल और गुटबाजी के माध्यम से शक्तिशाली मनुष्यों से अपनी रक्षा करते हैं। हॉब्सश्श्श् के अनुसार मानसिक शक्त्ति का आधार अनुभव होता है जो समय के साथ सारे मनुष्यों को लगभग समान प्राप्त होता है। हॉब्स के अनुसार सारे मनुष्य लगभग समान होते हैं और इसी समानता के कारण इनमें आपसी संघर्ष पैदा होता है। हॉब्स लिखता है- "सामान्यतः मनुष्यों में अपना लक्ष्य प्राप्त करने की समान योग्यता होती है। इस समानता के कारण उनमें अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए आशा का उदय होता है। अतः यदि दो मनुष्यों का लक्ष्य एक ही वस्तु को प्राप्त करना है तो वे एक-दूसरे के शत्रु बन जाते हैं। उनमें संघर्ष आरम्भ हो जाता है और वे एक-दूसरे को नष्ट करने या अपने अधीन करने का प्रयास करते हैं।
मानव स्वभाव पर विचार की आलोचनाएँ (Criticisms of Views on Human Nature)
हॉब्स के मानव स्वभाव सम्बन्धी विचारों की निम्नलिखित आधारों पर आलोचना की गई है :
1. यह विश्लेषण मानव स्वभाव का एकपक्षीय दष्टिकोण ही कहा जा सकता है। हॉब्स मनुष्य को घोर स्वार्थी, कपटी, डरपोक, दंभी और झगड़ालू मानता है। किन्तु जहाँ एक ओर मनुष्य में पाशविक प्रव त्तियाँ हैं, तो दूसरी ओर उसमें दया, क्षमा, प्रेम व परोपकार की भावना भी पाई जाती है। हॉब्स केवल पाशविक प्रव त्ति पर जोर देता है। इसलिए मानवीय सद्गुणों की अवहेलना के कारण यह विश्लेषण एकांगी, दोषपूर्ण और निराशावादी है।
2. हॉब्स का यह कथन एकदम सत्य नहीं है कि मानसिक द ष्टि से कमजोर व्यक्ति शारीरिक रूप से शक्तिशाली होते हैं। 3. हॉब्स ने मनुष्य के स्वभाव के चित्रण में परस्पर संघर्ष और अविश्वास की भावना को उजागर किया है। वास्तविकता तो यह है कि मनुष्य अपनी सुख-सुविधा और शान्ति सुरक्षा को द ष्टिगत रखते हुए दूसरे सभी व्यक्तियों को अपनी माँग के अनुकूल ढालने का प्रयास करता है।
4. हॉब्स का यह कहना सही नहीं है कि मनुष्य के सारे क्रिया-कलाप स्वार्थ पूर्ति हेतु होते हैं। मनुष्य अपनी स्वार्थ सिद्धि के साथ-साथ दूसरों की सुख-सुविधा का भी ध्यान रखकर व्यवहार करता है। सारे मानव-व्यवहार एक समान नहीं हो सकते।
5. हॉब्स ने मनोविज्ञान के सिद्धान्तों को राजनीति विज्ञान में प्रवेश कराने का अनावश्यक प्रयास किया है। मनुष्य का सामाजिक व्यवहार राजनीतिक क्रिया-कलापों के सन्दर्भ में बदल जाता है। इसलिए राजनीतिक क्रियाकलापों के सन्दर्भ में मानव-व्यवहार एक अलग तरह का ही होता है।
हॉब्स के बारे में जॉन्स की यह उक्ति सही है "हॉब्स की गलती उन बातों में नहीं है जिन्हें वह स्वीकार करता है, बल्कि उन बातों में है जिन्हें वह स्वीकार नहीं करता।" हॉब्स का यह कहना ठीक है कि मनुष्य स्वार्थी, अहम्वादी और संघर्षशील होता है। हॉब्स ने मनुष्य के सद्गुणों जैसे दया, क्षमा, सहानुभूति, उदारता, परोपकार आदि का समावेश नहीं करके बहुत बड़ी गलती की है। यही गलती उसकी मानव स्वभाव सम्बन्धी विचारों की आलोचना का प्रमुख व केन्द्रीय आधार है।
प्राकृतिक अवस्था की अवधारणा (Conception of State of Nature)
हाब्स प्राकृतिक अवस्था को समाज से बाहर की अवस्था मानता है। यह अवस्था सामाजिक और राजनीतिक जीवन प्रारम्भ होने से पूर्व की अवस्था थी। हॉब्स के अनुसार समाज की प्रारम्भिक अवस्था में सही और गलत का भेद नहीं था, क्योंकि कानून बनाने वाली शक्ति का अभाव था। इस अवस्था में कोई सर्वोच्च शक्ति नहीं थी। किसी वस्तु पर अपना स्वामित्व दिखाना शक्ति पर आधारित था हॉब्स का मानना है कि मनुष्य के स्वार्थीपन के कारण वह तीन प्रधान कामनाओं आत्मरक्षा की भावना, लाभ की भावना तथा आत्म प्रसिद्धि की भावना से समान रूप से प्रभावित होता है। उसमें निरन्तर शक्ति ग्रहण करने की इच्छा है। इन्हीं भावनाओं के कारण उसमें सन्देह या अविश्वास की प्रवत्ति जाग त होती है जिसके कारण संघर्ष की स्थिति पैदा होती है। हॉब्स का मानना है कि मनुष्य में मूलतः काफी असभ्यता विद्यमान है। प्राकृतिक अवस्था में न तो समाज था और न सरकार इस युग में 'जिसकी लाठी उसकी भैंस' (Might is Right) का सिद्धान्त प्रचलन में था। यह अवस्था निरंतर भय तथा घातक मत्यु की दशा थी जहाँ मनुष्य का जीवन एकाकी, निर्धन, घ णित, पाशविक और अल्प था। हॉब्स के अनुसार यह दशा मनुष्यों के दोषों का परिणाम न होकर उनकी प्रकृति का परिणाम थी। इस अवस्था में मानव का जीवन अत्यधिक कठिनाई से भरा हुआ था। हॉब्स प्राकृतिक अवस्था का निम्नलिखित चित्र अंकित करता है- "ऐसी अवस्था में उद्योग के लिए कोई सम्भावना नहीं है, क्योंकि उसका फल अनिश्चित है। अतः पथ्वी पर किसी प्रकार की सभ्यता का होना सम्भव नहीं है। किसी प्रकार की जहाजरानी नहीं होती और न ही किसी प्रकार की चीजें समुद्री मार्ग से मंगाई जा सकती हैं। कोई आरामदायक भवन नहीं. है तथा न ही भारी वस्तुओं को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाया जा सकता है। पथ्वी तल का कोई ज्ञान नहीं है, समय की गणना करना सम्भव नहीं है, कोई कला या साहित्य या लिपि नहीं है, कोई समाज नहीं है। सबसे अधिक तो यह कि लड़ाई-झगड़े में मत्यु होने का भय निरन्तर विद्यमान है तथा मनुष्य का जीवन एकाकी, दरिद्र, घ णित, असभ्यता से पूर्ण तथा लघुकालीन है। इसके परिणामस्वरूप कोई अधिकार कोई राज्य, स्पष्प रूप से कोई मेरा या तेरा नहीं है। केवल मनुष्य का वही है, वह जो प्राप्त कर सकता है और जितने समय तक बलपूर्वक सुरक्षित रख सकता है। व्यक्तियों को नियन्त्रण में रखने के लिए किसी सर्वमान्य व्यक्ति के न होने के कारण निरन्तर ग हयुद्ध की सी स्थिति है जिसमें सभी सबके विरुद्ध हैं। "
हॉब्स के प्राकृतिक अवस्था सम्बन्धी विचारों का आधार उसका वैज्ञानिक भौतिकवाद है। हॉब्स की विचारधारा के अनुसार मानव प्रकृति में कुछ ऐसे दोष हैं जो मानव को असामाजिक प्राणी सिद्ध करते हैं। इस स्थिति में यदि राज्य का भय नहीं होगा तो मानव निरंकुश पशु के समान आचरण करेगा।
उपर्युक्त चित्रण के आधार पर हॉब्स की प्राकृतिक अवस्था की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं :-
1. सही और गलत की धारणा का न होना (No Conception of Right and Wrong ) : हॉब्स के अनुसार समाज की प्रारम्भिक अवस्था में ठीक और गलत जैसा कोई भेद नहीं था। कानून व कानून निर्माता जैसी शक्ति समाज में नहीं थी सहमति जैसी अवधारणा लुप्त थी। प्रारम्भिक अवस्था में सर्वोच्च शक्ति कहीं केन्द्रित नहीं थी। अतः ऐसा कोई कानून नहीं था जो सबके लिए हो। कानून न होने की स्थिति में न्याय की कल्पना करना ही गलत है। निजी सम्पत्ति की अवधारणा व्यक्तिगत सामर्थ्य पर निर्भर थी। यह अवस्था सभ्य समाज के विपरीत थी। सरकार के न होने की स्थिति में कुछ ऐसी स्थिति होने की पूर्ण सम्भावना है। इस अवस्था में मनुष्य को गलत या सही, उचित व अनुचित, न्याय व अन्याय का कोई ज्ञान नहीं था। इस अवस्था में मनुष्य कुछ भी कर सकता था। सब कुछ मनुष्य की शारीरिक शक्ति पर निर्भर था। यह अवस्था समाज से पूर्व की अवस्था थी । अतः इस अवस्था में मनुष्य का जीवन अनैतिक और अविवेकपूर्ण था।
2. न्याय की अनुपस्थिति (Absence of Justice) : प्राकृतिक अवस्था में चूँकि राज्य ही नहीं था। इसलिए कानून होने का प्रश्न ही नहीं उठता। कानून के अभाव में न्याय की कल्पना ही नहीं की जा सकती। हॉब्स कहता है कि न्याय रहित मानव जीवन कष्टपूर्ण था और मानव का जीवन तथा सम्पत्ति केवल व्यक्ति की शक्ति पर निर्भर थे। ये वस्तुएँ तब तक ही मनुष्य के पास थीं, जब तक वह पूर्ण रूप से बलवान था और अन्य उसकी तुलना में कम शक्तिशाली थे।
3. असीमित स्वतन्त्रता (Unlimited Liberty ) प्राकृतिक अवस्था में मनुष्य की स्वतन्त्रता निर्वाध थी और वह पूर्ण स्वतन्त्रता का उपभोग करता था। मनुष्यों में सहमति कायम करने वाली कोई सर्वोच्च सत्ता नहीं थी। इसके अभाव में एक-दूसरे को बाँधकर रखना मुश्किल कार्य था। अतः कोई किसी के अधीन नहीं था। इस युग में पूर्ण स्वतन्त्रता का प्रचलन था। व्यक्ति स्वतन्त्रता का पूर्ण आनन्द उठाता था।
4. निरन्तर तनाव, संघर्ष, अराजकता तथा युद्ध की स्थिति (Situation of Continuous tension, Conflict, Anarchy and War) : मानव स्वभाव का अध्ययन करके हॉब्स ने निष्कर्ष निकाला कि मनुष्य की मूल प्रव त्ति आत्मरक्षा करने की है। आत्मरक्षा मानव व्यवहार का केन्द्र बिन्दु है। इस मूल प्रव त्ति के कारण सभी मानव आपस में स्वार्थ, अहंकार, शक्ति, छल व भय से युक्त व्यवहार करने को विवश थे। इसलिए प्राकृतिक अवस्था में मनुष्यों के बीच स्थाई तनाव, संघर्ष एवं युद्ध की स्थिति ही स्वाभाविक दशा थी। हॉब्स के अनुसार यह अवस्था- “प्रत्येक मानव की प्रत्येक मानव के साथ युद्ध की अवस्था थी। इस युद्ध में शक्तिशाली ही विजयी होते थे। ऐसी अवस्था में अराजकता व तनाव का माहौल चारों ओर था। ऐसी अवस्था में न्याय की आशा निर्मूल थी। चारों ओर 'जिसकी लाठी उसकी भैंस का सिद्धान्त प्रचलन में था।
5. व्यक्तिगत सम्पत्ति की अनुपस्थिति (Absence of Private Property) : प्राकृतिक अवस्था में सब वस्तुओं पर शक्तिशाली का ही अधिकार होता था। उसका शक्तिशाली रहना ही उसके स्वामित्व का परिचायक था। जब वह निर्बल हो जाता था, तो उस सम्पत्ति से उसका अधिकार उठ जाता था और दूसरा शक्तिशाली व्यक्ति उसकी सम्पत्ति का मालिक बन जाता था। इसलिए अपने स्वामित्व को कायम रखने के लिए व्यक्ति को अपनी शक्ति कायम रखने के लिए निरन्तर संघर्ष करना पड़ता था। अतः प्राकृतिक अवस्था में मनुष्य के पास निजी सम्पत्ति नहीं थी
6. नागरिक नैतिकता की अनुपस्थिति (Absence of Civic Morality) : हॉब्स के अनुसार मनुष्य अपने स्वभाव से ही असामाजिक प्राणी है। राज्यविहीन अवस्था में मानव किसी भी प्रकार की नागरिक नैतिकता से अपरिचित था । उसे अच्छे या बुरे का ज्ञान नहीं था। वह स्वार्थपूर्ण व्यवहार करता था, व्यक्तिगत हित की प्रधानता होने के कारण नागरिक नैतिकता का सर्वथा अभाव था। राज्य व समाज का विचार न होने के कारण सामान्य हित का अभाव था। सरकार जैसी कोई संस्था न होने के कारण व्यक्ति के कार्यों पर कोई प्रतिबन्ध नहीं था। इस युग में व्यक्ति खुलकर स्वार्थ-सिद्धि के कार्य करता था। ऐसा करते समय व सही व गलत का कोई ध्यान नहीं रखता था, क्योंकि उसे इस बात का कोई ज्ञान नहीं था कि अनुचित क्या है तथा उचित क्या वह सदैव स्वहित साधक बनकर कार्य करता था इसलिए नागरिक नैतिकता का सर्वथा अभाव था।
7. जीवन की असुरक्षा (Insecurity of Life) : प्राकृतिक अवस्था में अविश्वास, हिंसा, संघर्ष तथा युद्ध की स्थिति निरन्तर बनी रहती थी। सभी व्यक्ति भयभीत रहते थे। कानून बनाने वाली तथा उसे लागू करने वाली संस्था का सर्वथा अभाव था। मनुष्य को आत्मरक्षा का डर सदैव सताता था। इसलिए वह छल, कपट, धूर्तता और पाशविकता का आचरण करता था। इस अवस्था में मनुष्य का जीवन सदैव खतरे में रहता था। कमजोर को शक्तिशाली का डर सदैव लगा रहता था। इसलिए मनुष्य पूर्ण रूप से असुरक्षित था।
हॉब्स ने मनुष्य की प्राकृतिक अवस्था का भयानक चित्रण पेश किया है जिसमें कोई अधिकार, कानून व्यवस्था, शान्ति और स्थायित्व नहीं था। प्राकृतिक अवस्था में मनुष्य एक निकृष्ट प्राणी था। इस अवस्था में विवेक का अभाव था। सभी मनुष्य अपनी सुरक्षा को लेकर चिन्तित रहते थे। मनुष्यों में सम्पत्ति, सम्मान और शक्ति के लिए निरन्तर संघर्ष होता रहता था।
लेकिन हॉब्स द्वारा प्रस्तुत प्राकृतिक अवस्था को अनेक समाजशास्त्रियों और मानव-विज्ञान शास्त्रियों ने अनैतिहासिक मानते हुए इसे नागरिक समाज की परिकल्पना मात्र माना है। हॉब्स ने मनुष्य को मनोवेगों का दास माना है। लेकिन मनुष्य पूरी तरह से इच्छाओं का दास नहीं कहला सकता। हॉब्स ने मानव जीवन के एकांगी पक्ष का चित्रण करके यह स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि मनुष्य की प्रकृति स्वार्थपन की होती है। मनुष्य स्वहित को ही प्रधानता देता है। हॉब्स ने मानव स्वभाव के प्रेम, दया, सहानुभूति, बलिदान, परोपकार आदि भावनाओं की अनदेखी जरूर की है। लेकिन उस समय जब मनुष्य प्राकृतिक अवस्था में रहता था तो इन भावनाओं का अभाव पाया जाना कोई अचरज की बात नहीं है। असभ्य नागरिक समाज में तो ये विशेषताएँ अवश्य मिलती हैं। हॉब्स द्वारा मानव सभ्यता के विकास के प्रारम्भिक चरण में उपर्युक्त वर्णित प्राकृतिक अवस्था का पाया जाना संभव है। जब आज के सभ्य नागरिक समाज में उस समय की प्राकृतिक अवस्था की सारी विशेषताएँ देखने को मिल सकती हैं तो हॉब्स के दर्शन को कोरी कल्पना कहना गलत है। सच्चाई चाहे जो भी हो लेकिन हॉब्स का प्राकृतिक अवस्था चित्रण सभ्य नागरिक समाज के विकास का प्रारम्भिक बिन्दु अवश्य है। उसका सम्पूर्ण दर्शन वैज्ञानिक भौतिकवाद पर आधारित होने के कारण सत्य के अधिक निकट है।