सम्प्रभुसत्ता का सिद्धान्त (Theory of Sovereignty)
हॉब्स आधुनिक सम्प्रभु राज्य के पिता के रूप में(Hobbes as the Father of Modern Sovereign State)
हॉब्स का प्रभुसत्ता का सिद्धान्त सामाजिक समझौते के परिणामस्वरूप ही अस्तित्व में आया। हॉब्स ने सर्वप्रथम अपार व असीम शक्तियुक्त सम्प्रभु का वर्णन किया है जो पूर्णतः निरंकुश है। हॉब्स प्रभुसत्ता का प्रबल समर्थक है। हॉब्स के समान अन्य किसी विद्वान ने उससे पहले प्रभुसत्ता की असीमित प्रकृति का वर्णन नहीं किया। आधुनिक अर्थ में हॉब्स ने ही प्रभुसत्ता को विस्तत व्याख्या करके एक नया सिद्धान्त पेश किया।
आधुनिक अर्थ में प्रभुसत्ता राज्य की अनियन्त्रित शक्ति है जिसको आवश्यक जन समर्थन व शक्ति प्राप्त है। इसका कार्यक्षेत्र निश्चित है। आधुनिक अर्थ में प्रभुसत्ता का अर्थ कानून बनाने और उसका प्रशासन करने के लिए राज्य का अनियन्त्रित एवं सर्वोच्च अधिकार है जिससे राज्य को पूरा निग्रह बल प्राप्त है। व्यक्ति के सम्बन्धों को नियमित व अनुशासित करने का अन्तिम उपाय राज्य ही है। आधुनिक युग में राज्य का सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व प्रभुसत्ता है क्योंकि इसके कारण ही राज्य अपने क्षेत्र में रहने वाले सभी व्यक्तियों तथा व्यक्ति समुदाय को आदेश देने और उनका पालन करवाने की शक्ति मिलती है। प्रभुसत्ता नागरिकों व प्रजाजनों के ऊपर राज्य की वह परम शक्ति है जो कानूनों द्वारा नियन्त्रित नहीं है। यह प्रजा के ऊपर राज्य की मौलिक निरंकुश व असीमित शक्ति है। प्रभुसत्ताधारी वैधानिक रूप से प्रत्येक व्यक्ति व समुदाय से उच्चतर है। वह उस सर्वोच्च शक्ति का धारक है, जिसके बल पर वह अन्यों से अपनी बात मनवाता है। गैटिल के अनुसार- "किसी अन्य विद्वान ने प्रभुसत्ता की असीमित प्रकृति का वर्णन नहीं किया है जितना हॉब्स ने।" हॉब्स ने पूर्व, प्रभुसत्ता सम्बन्धी विचारों का विश्लेषण करे तो राजनीतिक दर्शन के केन्द्र यूनान में प्रभुसत्ता की धारणा नहीं थी। यूनानी प्रभुसत्ता की प्रवत्ति को निर्धारित नहीं कर सके कि यह क्या है, कहाँ रहती है तथा इसका क्या उत्तरदायित्व है। प्रभुसत्ता के विचार का उदय सबसे पहले रोमन साम्राज्य तथा नरेशों में मिलता है लेकिन वे सका समुचित विकास नहीं कर सके। मध्यकालीन युग में पोप तथा होली रोमन साम्राज्य के दौरान भी प्रभुसत्ता को नहीं समझा गया। प्रभुसत्ता के विचार को मैकियावली की देन, राष्ट्रीय स्वतन्त्रता तथा एकाकी राज्य का विचार है। लेकिन उसने प्रभुसत्ता पर कुछ नहीं लिखा। बोदिन ने ही सर्वप्रथम आधुनिक चिन्तक के रूप में प्रभुसत्ता की अवधारणा का श्रीगणेश किया। बोदां के अनुसार- "प्रभुसत्ता प्रजाओं और नागरिकों पर परमाधिकार है, जिस पर कानून का नियन्त्रण नहीं है।" परन्तु उसने सम्प्रभुता पर कुछ पावन्दियाँ लगा दीं। इसके बाद प्रोशियस ने प्रभुसत्ता को केवल सम्पत्ति के अधिकार तक ही सीमित कर दिया। उसने सम्प्रभु पर अन्तरराष्ट्रीय तथा प्राकृतिक कानूनों की सीमाएँ लगा दीं। इस प्रकार हॉब्स से पूर्व सम्प्रभुसत्ता की कोई निश्चित प्रकृति नहीं थी
हॉब्स ने सर्वप्रथम सम्प्रभुता को निरंकुश, अविभाज्य, असीमित, सर्वव्यापी आदि बनाकर उसे बोदाँ के ईश्वरीय कानून, प्राकृतिक कानून, संवैधानिक कानून आदि प्रतिबन्धों से मुक्त कर दिया। सी. ई. वाहन का कथन है- "हॉब्स ही ऐसा दार्शनिक है जिसने सर्वप्रथम इस बात का अनुभव किया कि राज्य के एक पूर्ण सिद्धान्त में मूल विचार सम्प्रभुता का है। उसने ही सर्वप्रथम सम्प्रभुता के स्थान, कार्यों और सीमाओं को निश्चित करने की आवश्यकता को बल दिया है।" हॉब्स के अनुसार- "सम्प्रभु वह व्यक्ति है जिसको एक विशाल जनसमूह ने स्वेच्छापूर्वक एक दूसरे से समझौता करके, इस उद्देश्य से अपना प्रभु बना लिया है कि वह उनकी सुरक्षा और शान्ति के लिए उन सबकी शक्तियों व साधनों का आवश्यकतानुसार प्रयोग कर सकता है।"
हॉब्स की परिभाषा से स्पष्ट है कि लोगों ने अपने अधिकार एक समूह को हस्तांतरित कर उसे सम्प्रभु के पद के लिए स्वीकारा है। इसके लिए सम्प्रभुता राजनीतिक जीवन का एक तथ्य है। जहाँ कहीं भी नागरिक या राजनीतिक समाज पाया जाता है वहाँ सम्प्रभुता भी होनी चाहिए। सम्प्रभुता के अभाव में मनुष्य मनमानी करेगा तथा राज्य के अस्तित्व को उद्देश्य ही नष्ट हो जाएगा। व्यक्ति की निरंकुशता पर रोक लगाने व सभ्य समाज की स्थापना के लिए किसी ऐसी सर्वोच्च शक्ति का होना आवश्यक है जो विघटनकारी तत्त्वों से निपट सके। इसलिए हॉब्स ने ऐसी ही शक्ति की कल्पना की थी ।
सम्प्रभुता की विशेषताएँ (Characteristics of Sovereignty)
हॉब्स के सम्प्रभुता की व्याख्या करके उसकी निम्न विशेषताओं का उल्लेख किया है :-
1. सम्प्रभुता सर्वोच्च शक्ति है (Sovereignty is the Supreme Power) : हॉब्स का सम्प्रभु सर्वशक्तिमान है। राज्य की समस्त सर्वोच्च शक्ति उसी में केन्द्रित है। वह कानून का निर्माण करता है, उसकी व्याख्या करता है एवं उसे लागू करता है। हॉब्स के सम्प्रभु में विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका सम्बन्धी समस्त शक्तियाँ हैं। उसे युद्ध व शान्ति की घोषणा करने का अधिकार है। सिक्का बनाने, सम्पत्ति का हस्तान्तरण करने, परमाधिकार का प्रयोग करने या उन्हें हस्तान्तरित कर देने का उसे पूरा अधिकार है। इस हस्तान्तरण से उसकी सम्प्रभुता में कोई कमी नहीं आती। वह पद सम्मान में भी सर्वोच्च है। वह यश का स्रोत है। उसके समान अन्य कोई सर्वोच्च शक्ति नहीं है।
2. सम्प्रभु समस्त विधेयात्मक कानूनों का स्रोत है (Sovereignty is a Source of all Legislative Laws) : हॉब्स की सम्प्रभुता कानूनी सम्प्रभुता है। कानून निर्माण करने की शक्ति सम्प्रभु के पास है। वह समस्त विधेयात्मक कानूनों का स्रोत होता है। कानून सम्प्रभु का आदेश है। सम्प्रभु संसद को कानून बनाने की आज्ञा दे सकता है। हॉब्स का सिद्धान्त सत्ता के केन्द्रीयकरण परजोर देता है। कानूनों की विरल धारा सम्प्रभु की सर्वोच्च शक्ति से ही निकलती है।
3. सम्प्रभु अदण्डनीय है (Sovereignty is Unpunishable) : सम्प्रभु सर्वशक्तिमान है। सम्प्रभु जनता के हित में कानून बनाता है। वह कभी गलती नहीं करता। अतः उसे दण्ड देने का प्रश्न ही नहीं उठता। यदि कोई अवांछित कार्य हो जाए तो इसके लिए जनता ही दोषी है। इसलिए जनता को ही दण्ड दिया जाना चाहिए।
4. सम्प्रभुता अनुत्तरदायी है (Sovereignty is Irresponsible) : चूँकि समझौता प्रजाजनों के बीच है और सम्प्रभु समझौते का कोई पक्ष नहीं है। इसलिए प्रभुसत्तासम्पन्न शासक द्वारा समझौते का उल्लंघन नहीं हो सकता। समझौते का पालन ही न्याय है प्रभुसत्तासम्पन्न शासक अन्याय नहीं कर सकता। सम्प्रभु अपने कार्यों के लिए किसी के प्रति उत्तरदायी नहीं है। उसके द्वारा शक्तियों का प्रयोग अन्याय नहीं हो सकता। वह सभी प्रकार के बन्धनों व शर्तों से मुक्त है तथा राज्य का कोई व्यक्ति उसकी अधीनता से मुक्त नहीं है। वह किसी के प्रति जवाबदेह नहीं है।
5. सम्प्रभुता नागरिक समाज का अनिवार्य अंग है (Sovereignty is an Essential Part of Society) : सम्प्रभुता राज्य का अनिवार्य तत्त्व है। इसके अभाव में नागरिक समाज की कल्पना असम्भव है। सम्प्रभुता तथा राज्य की उत्पत्ति एक साथ होती है। एक के अभाव में दूसरे की कल्पना असम्भव है। जहाँ नागरिक समाज होगा, वहाँ सम्प्रभुता भी होगी अन्यथा उसके अभाव में अराजकता होगी।
6. सम्प्रभुता अपरिवर्तनीय है (Sovereignty is Irrevocable) : समझौते द्वारा किसी व्यक्ति या व्यक्ति समूह को अपना प्रभु स्वीकार करने के बाद उसकी स्वीकृति के बिना उसके राजत्व को इन्कार नहीं कर सकते। समझौते द्वारा जनता सेक्रान्ति का अधिकार छीन लिया जाता है। व्यक्ति समझौते का अन्त कर उस भयंकर प्राकृतिक अवस्था को वापिस नहीं जा सकते। सत्ता के विरुद्ध विद्रोह करने का अधिकार नियम विरुद्ध घोषित किया जाता है। अतः सम्प्रभुता को बदला नहीं जा सकता। इसलिए हॉब्स का सम्प्रभु असीमित व निरंकुश है।
7. युद्ध और शान्ति का निर्णायक (Conclusion of War and Peace) : हॉब्स के अनुसार सम्प्रभु को अन्य राज्यों से अपनी इच्छानुसार युद्ध, शान्ति या समझौते के मार्ग अपनाने का अधिकार प्राप्त है। सम्प्रमु अपनी इच्छानुसार युद्ध में अपनी सैनिक शक्ति का प्रयोग कर सकता है। अतः सम्प्रभु युद्ध व शान्ति का एकमात्र निर्णायक है। सम्प्रभु ही सामान्य हित में युद्ध व शान्ति का एकमात्र निर्णायक है। सम्प्रभु ही सामान्य हित में युद्ध या शान्ति का मार्ग चुनता है। वह निर्णय करने के लिए पूर्ण रूप से सक्षम है।
8. सम्प्रभु प्रत्येक कानून व न्याय का स्रोत है (Sovereignty is the Source of all Laws and Justice) : कानून राज्य या सम्प्रभु के आदेश होते हैं। लोगों द्वारा किये गए कार्यों में अच्छाई-बुराई, वैधानिकता अवैधानिकता का निर्णय करने का अधिकार नागरिका कानूनों को है। कानून निर्माण तथा कानून में परिवर्तन का अधिकार राज्य अर्थात् सम्प्रभु को है। परन्तु उसे काई बाँध नहीं सकता। इसलिए कानून उसके आदेश हैं। लोगों के विवादों को सुनना और प्राकृतिक या नागरिक कानूनों द्वारा उन पर निर्णय देना उसका या उसके द्वारा नियुक्त अधिकारियों का कार्य है। अतः सम्प्रभु ही प्रत्येक कानून व न्याय का स्रोत है।
9. सम्प्रभु को विचारों तथा लोगों की सम्पत्ति पर पूरा अधिकार है (Sovereignty has Complete Right Over Subjects, Thoughts and Properties) हॉब्स का सम्प्रभु असीमित है। उसकी शक्तियों पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है। सम्प्रभु का लोगों की सम्पत्ति और विचारों पर पूरा नियन्त्रण है। वह जिसकी चाहे सम्पत्ति छीन सकता है। वह
लोगों के विचारों पर भी रोक लगा सकता है। वह जिस प्रकार चाहे सम्पत्ति व विचारों का हस्तान्तरण व नियन्त्रण कर सकता है। कानून सम्प्रभु का आदेश होते हैं। आवश्यकता पड़ने पर इस बारे में कानून भी बना सकता है।
10. सम्प्रभुता अविभाज्य और अदेय है (Sovereignty is Indivisible and non-transferable) : बोदाँ की भाँति हॉब्स भी सम्प्रभुता को अविभाज्य मानता है। सम्प्रभुता का विभाजन ग हयुद्ध इसलिए हुआ कि वहाँ प्रभुसत्ता राजा, लार्ड सभा एवं कामन सभा के बीच विभाजित थी। शासन प्रणाली कोई भी हो, उसमें कहीं-न-कहीं सम्प्रभुता अवश्य होती है। राज्य के विभाजन से सम्प्रभुता का भी बँटवारा हो जाता है। राज्य स्वयं में समाप्त हो जाता है और ग हयुद्ध आरम्भ हो जाता है। हॉब्स कहता है कि विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका तीनों ही शक्तियाँ एक ही सम्प्रभु के हाथ में होनी चाहिएं। इनका विभाजन असुरक्षा व अराजकता को दावत देता है। अतः हॉब्स सम्प्रुभता को अविभाज्य और अदेय मानता है।
11. सम्प्रभु प्रशासनिक शक्तियों का एकमात्र स्रोत है (Sovereignty is the sole sourse of Adminstrative Power) : हॉब्स का सम्प्रभु समस्त शक्तियों का जन्मदाता है। समस्त अधिकारी उसके द्वारा प्रदत्त शक्तियों का ही प्रयोग करते हैं। प्रशासनिक पदों पर नियुक्ति सम्प्रभु ही करता है। अधिकारियों को पद से हटाने व उन्हें दण्डित करने का अधिकार भी रखता है। इसलिए वह सर्वोच्च शक्ति का केन्द्र है और प्रशासनिक शक्तियों का एकमात्र स्रोत है।
12. सम्प्रभुता असीमित है (Sovereignty is Unlimited) : सम्प्रभु ही कानून का एकमात्र स्रोत और व्याख्याकार है। वह नागरिक कानूनों के अधीन नहीं रहता, क्योंकि सम्प्रभु का आदेश नागरिक कानून है और स्वयं सम्प्रभु पर उसका आदेश लागू नहीं हो सकता। हॉब्स कहता है कि राजा के लिए कानूनों का पालन करना आवश्यक नहीं है। प्राकृतिक विधि की व्याख्या सम्प्रभु ही करता है। इसलिए वह सम्प्रभु द्वारा आदेशित नागरिक विधि के प्रतिकूल नहीं हो सकती। दैवी कानून भी सम्प्रभु के विधान के प्रतिकूल नहीं हो सकते, क्योंकि उसकी व्याख्या करने वाला सम्प्रभु ही होता है। सम्प्रभु की शक्तियाँ असीमित हैं। वह कानून से ऊपर है। उसकी शक्तियों को कानून द्वारा न बाँधा जा सकता है और न उसके विरुद्ध मुकद्दमा चलाया जा सकता है। कानून और नैतिकता उसकी इच्छाएँ हैं।
सम्प्रभु के अधिकार व कर्त्तव्य (Right and Duties Sovereign)
सम्प्रभु के अधिकार वे अधिकार हैं जो उसे करार द्वारा प्राकृतिक मनुष्य में समर्पित किए हैं। सम्प्रभु के अधिकारों की सीमा का निर्णय मनष्य स्वयं नहीं कर सकता बल्कि प्रकृति ही करती है। सम्प्रभु के कुछ अधिकार उसके कर्त्तव्य भी हैं। उसके प्रथम तीन अधिकार उसके कर्त्तव्य भी हैं। वे निम्नलिखित हैं :-
1.कानून बनाने का अधिकार (Right to make Law) : यह अधिकार सम्प्रभु का सबसे महत्त्वपूर्ण अधिकार है। राजा को कानून बनाते समय उनको समान क्रियान्वित करने का कर्तव्य भी होता है। कानून बनाते समय सम्प्रभु का कर्त्तव्य बनता है कि वह ऐसे कानून बनाए जिनसे अधिक से अधिक या लगभग सभी जनता के हितों की पूर्ति होती हो ।
2. कानून की व्याख्या व उसको क्रियान्वित करना (Right to interpret and implement Law) : सम्प्रभु का यह अधिकार उसका कर्त्तव्य भी है कानून की व्याख्या तथा व्यवस्था है। इसके द्वारा निर्णय करने तथा उस निर्णय को उचि रूप से दण्ड द्वारा क्रियान्वित करने का अधिकार तथा कर्त्तव्य भी सम्प्रभु का है। कानून को लागू करने की बाध्यकारी शक्ति सम्प्रभु के पास ही होती है। कानून को क्रियान्वित करवाने का कर्त्तव्य सम्प्रभु का होता है।
3. नीति निर्माण का अधिकार (Right to make Policies) : इस अधिकार द्वारा सम्प्रभु को शासन करने और शासित लोगों की जीवन सुरक्षा के लिए नीति निर्धारित करने का अधिकार प्राप्त है। जन-कल्याण के लिए नीति निर्माण करना उसका कर्त्तव्य भी है। शासक को ऐसी नीतियाँ बनानी चाहिएं जिनसे अधिकतम का कल्याण हो
4. प्रशासन को सुचारू रूप से चलाने के लिए वह मन्त्रियों, सेनापतियों, परामर्शदाताओं, न्यायाधीशों तथा दूसरे सार्वजनिक पदाधिकारियों की नियुक्ति करता है तथा उनके कार्यों की निगरानी करता है। अतः सम्प्रभु राज्य में प्रशासन का सर्वेसर्वा होता है।
5. सम्प्रभु को राज्य में न्याय की स्थापना हेतु अपराधियों को दण्ड देने का अधिकार है। चोरी, डकैती, हत्या तथा कानून की अवहेलना करने वाला दण्ड का भागीदार होता है।
6. राज्य का सर्वेसर्वा होने के कारण सम्प्रभु को युद्ध या शांति सन्धि करने का अधिकार है।
7. सम्प्रभु का राज्यहित में जनता की सम्पत्ति छीनने व इस विषय में कोई भी कानून बनाने का अधिकार है।
8. उसे प्रजा पर कर लगाने का अधिकार है।
9. सम्प्रभु को अपनी सम्प्रभुता शक्ति को अविच्छिन्न रूपसे प्रयोग करने का अधिकार प्राप्त है। 10. राज्य में शान्ति बनाए रखने के लिए सम्प्रभु को भाषण व लेखन पर नियन्त्रण का अधिकार है। सम्प्रभु की स्वीकृति के बिना कोई व्यक्ति अपने सिद्धान्त का प्रसार नहीं कर सकता है।
11. राज्य के नागरिकों को पुरस्कार देने तथा सम्मान देने का अधिकार भी सम्प्रभु को है
12. नागरिकों के झगड़े सुलझाना व न्याय करना सम्प्रभु का मुख्य कत्तव्य है।
13. नागरिकों के जान-माल की सुरक्षा करना भी सम्प्रभु का कर्त्तव्य है
14. अपराधी को क्षमा करने का अधिकार सम्प्रभु के पास है।
15. अच्छा प्रशासन देना व राज्य में शांति कायम रखना भी सम्प्रभु का प्रमुख कर्त्तव्य है।
16. प्रजा को सन्तुष्ट जीवन के लिए आवश्यक पदार्थ उपलब्ध कराना भी सम्प्रभु का कर्त्तव्य है।
17. राज्य की उन्नति के प्रयास करना, कानून की समानता, न्याय का समान रूप से क्रियान्वित तथा समानतापूर्वक कर की सुविधा प्रदान करना सम्प्रभु के प्रमुख कर्त्तव्य हैं।
सम्प्रभु का विरोध कब ? (When Sovereignty can be Opposed)
सर्वशक्तिमान सम्प्रभु होने के बावजूद भी हॉन्स सम्प्रभु पर कुछ प्रतिबन्धों की व्यवस्था करता है। हॉब्स ने कुछ विशेष परिस्थितियों में सम्प्रभु की आज्ञाओं का उल्लंघन करने का अधिकार जनताको प्रदान किया है। यद्यपि हॉब्स ने सम्प्रभुता को सर्वशक्तिमान, अविभाज्य, अखण्ड व अदेय माना है, फिर भी उसने कहा है कि यदि सम्प्रभु किसी व्यक्ति को अपनी दया करने, अपना अंग-भंग करने, अपने आक्रमणकारियों का विरोध करने अथवा जीवन को कायम रखने वाली वस्तुओं का प्रयोग न करने का आदेश देता है तो सम्प्रभु का विरोध किया जा सकता है। इसका अर्थ यह हुआ कि हॉब्स ने जीवन की सुरक्षा के लए सम्पभु का निर्माण किया है। सम्प्रभु किसी व्यक्ति को अपनी हत्या के लिए बाध्य नहीं कर सकता। व्यक्ति ने आत्मरक्षा हेतु समझौता किया है और सम्प्रभु का कर्तव्य बन जाता है कि वह मनुष्यों के जीवन की रक्षा करे। सम्प्रभु न्यायविरुद्ध कार्य नहीं कर सकता। सम्प्रभु असमानतामय हो सकता है। किन्तु वह किसी के जीवन का अधिकार नहीं छीन सकता। हॉब्स कहता है कि यदि सम्प्रभु व्यक्ति के जीने के आत्मरक्षा व स्थायित्व के अधिकार को छीनता है तो उसके विरुद्ध विद्रोह या क्रान्ति करना जनता के लिए आवश्यक बन जाता है।
सम्प्रभुता सिद्धान्त का मूल्यांकन एवं आलोचनाएँ (Evaluation and Criticisms of Concept of Sovereignty)
हॉब्स ने राज्य और समाज एवं राज्य और सरकार में कोई भेद नहीं किया है। हॉब्स एक शक्तिशाली राजतन्त्र के पक्षधर है। उन्होंने कानून व नैतिकता में कोई अन्तर न करके उनका मूल स्रोत एक ही माना है। हॉब्स के अनुसार शासक ही राज्य और समाज दोनों का निर्माण करता है। हॉब्स सम्प्रभुता को अविभाज्य व अदेय मानता है। यदि सम्प्रभुता का विभाजन किया गया तो सत्ता का स्थायीपन नष्ट हो जाता है। हॉब्स द्वारा समर्थित निरंकुश प्रभुसत्ता के पक्ष में दी गई दलीलें व्यावहारिक व उपयोगी हैं। हॉब्स ने राज्य के दैवी उत्पत्ति के सिद्धान्त का विरोध करके नया सिद्धान्त पेश करने का जो प्रयास किया है, सफल है। हॉब्स का यह सिद्धान्त, जिस समय इंगलैण्ड में ग हयुद्ध चल रहा था, उस समय का सबसे महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। शक्तिशाली शासक के अभाव में ग हयुद्ध से निपटना मुश्किल होता है। उसका यह सिद्धान्त आज भी कानूनी मान्यता प्राप्त सिद्धान्त है। किसी भी अन्य लेखक ने राज्य की प्रभुसत्ता की निरंकुश प्रकृति का इतना उत्कट द ष्टिकोण भी अपनाया है जितना हाब्स ने । उसने सर्वप्रथम सम्प्रभुता पर विस्तारपूर्वक लिखा है। इसलिए हॉब्स को आधुनिक सम्प्रभु राज्य के पिता के रूप में देखा जाता है। इस प्रकार हॉब्स ने परम्परागत शासन के प्रतिबन्धों से एक ऐसे सम्प्रभु का प्रतिपादन किया है जो विधि, शुभाशी, प्रशासन, अधिकार न्याय और नैतिकता, युद्ध और शांति का एकमात्र स्रोत है। इतने महान योगदान के बाद भी हॉब्स के सम्प्रभुता सिद्धान्त की कतिपय आलोचनाएँ की गई हैं जो निम्न प्रकार से हैं :-
1. हॉब्स के सम्प्रभु की निरंकुशता अतार्किक (Absolutism of Hobbes's Sovereignty is non-logical) : हॉब्स ने निरंकुश सम्प्रभु का सिद्धान्त पेश किया है। उसका शासक सर्वशक्तिमान है और प्रजा को उसका विरोध करने का अधिकार नहीं है। हॉब्स एक तरफ तो शासक को निरंकुश बनाता है और दूसरी तरफ उस पर प्रतिबन्धों की भी व्यवस्था करता है। प्रतिबन्धों से युक्त शासक निरंकुश नहीं हो सकता। यदि ऐसा है तो सम्प्रभु को निरंकुशता का क्या अर्थ है ? यदि प्रजा को विद्रोह का अधिकार है तो सम्प्रभु को निरंकुशता की धारणा अतार्किक है। हॉब्स द्वारा विशेष परिस्थितियों में शासक का विरोध करने का प्रजा का अधिकार सम्प्रभु की निरंकुशता को कम कर देता है। इस प्रकार सम्प्रभु की निरंकुशता और प्रजा का विद्रोह करने का अधिकार परस्पर विरोधी बातें हैं। अतः यह सिद्धान्त अतार्किक प्रतीत होता है।
2. अव्यावहारिक सिद्धान्त (Impracticable Theory) : हॉब्स ने सम्प्रभु को इतनी असीमित निरंकुश व अमर्यादित शक्तियाँ प्रदान करके इस सिद्धान्त को अव्यावहारिक बना दिया है। वर्तमान लोकतान्त्रिक राज्यों में हॉब्स के इस सिद्धान्त का कहीं भी अस्तित्व नहीं है। अतः आधुनिक युग में यह सिद्धान्त पूर्णतया अव्यावहारिक है।
3. व्यक्तियों की दुष्ट प्रव त्तियों पर अंकुश हेतु निरंकुश शासक ही आवश्यक नहीं (Dictator is not essential to control wicked nature of men) : हॉब्स का कहना है कि मनुष्य पाशविक प्रव त्तियों का स्वामी है। उसकी पाशविकता पर रोक लगाने के लिए शक्तिशाली निरंकुश सम्प्रभु का होना आवश्यक है। इतिहास में ऐसे बहुत से शासक हुए हैं जिन्होंने अपने उदार, धार्मिक और शुभचिन्तन के द्वारा दुष्ट प्रजाजनों पर शासन किया है। प्रजा पर शासन करने के लिए प्रजा का दिल जीतना आवश्यक होता है न कि उन्हें डराना-धमकाना । अतः प्रजा पर शासन करने के लिए निरंकुश शासक की कोई आवश्यकता नहीं होती।
4. सिद्धान्त में विरोधाभास (Contradiction in Theory) : हॉब्स ने सम्प्रभु की शक्ति का आधार और उद्देश्य व्यक्ति को आत्मरक्षा प्रदान बताया है तथा शान्ति के अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए समझौता किया है। यदि सम्प्रभु व्यक्ति के प्राकृतिक अधिकारों का उल्लंघन करता तो व्यक्ति को सम्प्रभु के आदेशों का विरोध करने का अधिकार है। एक तरफ हॉन्स सम्प्रभु को सर्वशक्तिमान तथा निरंकुश बताता है और दूसरी तरफ उस पर प्रतिबन्ध भी लगाता है। यही विरोधाभास का प्रमुख आधार है। प्रो. जोन्स का कथन है कि- "हॉब्स की दोनों बातें एक साथ सत्य नहीं हो सकतीं। यदि मनुष्य आत्म-रक्षा के लिए सम्प्रभु के आदेशों की अवहेलनता करता है तो सम्प्रभुता असीमित, सर्वोच्च व निरंकुश नहीं रहती और यदि वास्तव में सम्प्रभुता में ये सभी लक्षण होते हैं तो व्यक्ति के आत्मरक्षा का अधिकार का अस्तित्व नष्ट हो जाता है। जनता को विद्रोह का अधिकार प्रदान करने पर सम्प्रभु की शक्तियाँ असीमित न होकर सीमित रह जाती हैं। अतः इस सिद्धान्त में परस्पर विरोधी तत्त्वों का समावेश है।
5. आत्म-त्याग मानव प्रकृति से मेल नहीं खाता (Renunciation does not Confirm to Human Nature) : हॉब्स का कहना है कि मनुष्यों ने प्राकृतिक अवस्था के दुखों से छुटकारा पाने के लिए अपनी जीवन व स्वतन्त्रता के अधिकार किसी एक व्यक्ति या व्यक्ति समूह को सौंद दिये, मानव स्वभाव के विपरीत है। मानव सदैव स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए संघर्ष करता रहा है। वह कभी भी अपनी स्वतन्त्रता का परित्याग नहीं करेगा। मानव का अपनी इच्छानुसार त्याग करना उसकी मूल प्रकृति के विपरीत है। जो व्यक्ति अपनी स्वतन्त्रता त्याग देता है, वह अपने पुरुषत्व को ही त्याग देता है। रूसो के मत में जीवन और स्वतन्त्रता जैसी प्रकृति की देनों का किसी कल्पित लाभ के लिए सम्भवतया त्याग नहीं किया जा सकता। अपनी इच्छा को सारी स्वतन्त्रता से वंचित करना अपने कार्यों को सारे नैतिक गुणों से वंचित करने के बराबर है ।
6. हॉब्स के अनुसार शक्ति ही न्याय का आधार है (Power is the Base of Justice) : हॉब्स सम्प्रभु को सर्वशक्तिमान • मानता है। शक्ति का प्रयोग ही न्याय है। बिना नियंत्रण के शक्ति जब न्याय का स्रोत बन जाती है तो वह सर्वविनाशी और दुर्दमनीय बन जाती है। सम्प्रभु का निर्माण हॉब्स ने अनुत्तरदायी शासन के लिए किया है। यह कितनी भयंकरता है। हॉन्स सम्प्रभु के लिए शक्ति प्रयोग अपरिहार्य बना देता है। शक्ति का बर्बर प्रयोग ग हयुद्ध की स्थिति पैदा कर सकता है। इतिहास गवाह है कि जब भी किसी शासक ने शक्ति का दुरुपयोग किया है, उसे जनता का असंतोष झेलना पड़ा है।
7. हॉब्स की सम्प्रभुता अतिशयोक्तिपूर्ण है (Hobbes's Sovereignty is Exagerated) : हॉब्स ने जिस निरंकुश सम्प्रभु को असीमित शक्तियों का स्वामी बनाया है। वह व्यवहार में असम्भव है। हॉब्स ने कानून और नैतिकता को सम्प्रभु की इच्छा माना है। यह हॉब्स की असम्भव उक्ति है। ऐसी निरंकुशता तो म त्युशील देवता में ही हो सकती है। हॉब्स ने जो निरंकुश
5.सम्प्रभु की कल्पना की है, वह अतिशयोक्तिपूर्ण है। किसी एक व्यक्ति या व्यक्तियों की सभा द्वारा इतने सारे अधिकारों का सम्भाला जाना प्राकृतिक आवश्यकता है। एक व्यक्ति इतने सारे उत्तरदायित्व एक साथ नहीं सम्भाल सकता। हॉब्स ने सम्प्रभु को इतने सारे अधिकार व शक्तियाँ प्रदान करके अतिशयोक्तिपूर्ण कार्य किया है। यह विश्वास से परे की बात है।
8. शक्ति और भय पर आधारित सिद्धान्त (Principle Based on Force and Fear) : हॉब्स का कहना है कि प्राकृतिक अवस्था में लोगों ने अपने उपर शासन का अधिकार विवेक के कारण दिया। उन्होंने सम्प्रभु को तो सर्वशक्तिशाली बना दिया लेकिन स्वयं अपने पास कुछ नहीं रखा। यदि सम्प्रभु कोई कार्य करता है तो जनता उसका विरोध नहीं कर सकती। यदि प्रजा विद्रोह करेगीतो वापिस प्राकृतिक अवस्था के दुखदायी वातावरण में लौटना पड़ेगा। यही भय शासक की प्रमुख शक्ति है। इसलिए सम्प्रभु तथा व्यक्ति के बीच शक्ति और भय का सम्बन्ध है। समस्त जन भय के कारण ही शासक की आज्ञा का पालन करते हैं। इस प्रकार के सम्बन्ध राज्य में शान्ति स्थापित नहीं कर सकते। हॉब्स ने शक्ति और भय को साथ जोड़कर राज्य के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिह्न लगा दिया है। राज्य की शक्ति का आधार प्रेम, विश्वास व सहयोग है न कि भय और शक्ति
9. वास्तविक सरकार का समर्थन (Support of De-facto Government) : हॉब्स का सम्प्रभु का सिद्धान्त वास्तविक (De- facto) सरकार का समर्थन करता है। यह सरकार न्यायी हो चाहे अन्यायी, सही हो चाहे गलत उन्होंने शक्ति और अधिकार को अभिन्न माना है। इस सिद्धान्त के आधार पर कोई भी आततायी शासक अन्यायपूर्ण साधनों से सरकार की बागडोर अपने हाथ में ले सकता है। आलोचकों का कहना है कि हॉब्स ने 'लेवियाथन' पुस्तक निर्दयी व क्रूर शासक क्रामवैल की सत्ता का समर्थन करने के लिए लिखी थी।
हॉब्स के सम्प्रभुता सम्बन्धी विचार उस समय के सबसे क्रांतिकारी विचार हैं। उस समय इंगलैण्ड में ग हयुद्ध की स्थिति थी । लोगों को ध्यान आकर्षित करने तथा क्रामवैल की सत्ता का समर्थन करने के लिए इससे बढ़कर उपयोगी कोई अन्य सिद्धान्त नहीं था। हॉब्स ने स्पष्ट किया है कि जब कोई समाज राजनीतिक विघटन, अशान्ति तथा अराजकता के दौर से गुजर रहा हो तो समाज के एक आदर्श के रूप में सम्प्रभु के पास असीमित और सर्वोच्च शक्ति का होना अति आवश्यक है। ऐसी स्थिति में सम्प्रभु जनता को सुरक्षा प्रदान कर सकता है। अतः हॉब्स के सम्प्रभु सिद्धान्त का उद्देश्य यह स्पष्ट करना है कि एक सर्वोच्च शक्ति सम्पन्न सम्प्रभु ही ग हयुद्ध या अराजकता की स्थिति में राजनीतिक समाज को उभार सकता है।